Tuesday, June 22, 2010

लोकतांत्रिक सामंतवाद : जय हो

शुक्रवार, २९ मई २००९

सत्तर के शुरुआती दिनों मे विविधभारती की विज्ञापन सेवा जब मनोरंजन के क्षेत्र को एक नया आयाम दे रही थी। नए-नए विज्ञापन भी खासे आकर्षक बनाए जाते थे। उन दिनों के कुछ चर्चित विज्ञापन, मुझे उनकी बिंदास आवाज और स्टाइल के कारण बहुत पसंद थे। भविष्य की संभावनाओं को गर्भ में छिपाये उनमें से एक था ‘रस्टन इंजन बाप लगाये बेटे के बाद पोता चलाये’। हरित क्रांति के उस दौर में धाराप्रवाह जलधारा बही या नही, वह अलग विषय है किन्तु राजनीतिज्ञों नें उससे कैसी प्रेरणा ली, इसका मुज़ाहिरा करें.........

१-ज़ाकिर हुसैन के नवासे,खुरशीद आलम खाँ के लख्तेजिगर‘सलमान खुर्शीद’।

२-दलित शिरोमणि जगजीवनराम की लाड़्ली ‘मीराकुमार’।

३-पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री स०बेअंतसिंह के पौत्र ‘रवनीत सिंह’।

४-गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री अमरसिंह चौधरी के पुत्र ‘तुषार चौधरी’।

५-गुजरात के अन्य मुख्यमंत्री माधवसिंह सोलंकी के पुत्र ‘भरतसिंह सोलंकी;।

६-महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री वसंतदादा पाटिल के आत्मज ‘प्रतीक पाटिल’।

७-महाराजा पटियाला तथा भ्रष्टाचार का मुकदमा झेल रहे पूर्व मुख्यमंत्री स०अमरिंदर सिंह की मलिका महारानी ‘परणीतसिंह’।

८-ग्वालियर नरेश एवं केन्द्रीय मंत्री रहे स्व०महाराज माधवराव सिंधिया के उत्तराधिकारी महा०ज्योतिरादित्य सिंधिया’।

९-कश्मीर के महान सेक्युलर नेता और पं०नेहरु के प्रियपात्र मशहूर शेख अब्दुल्ला के नूरे नज़र ‘डा० फारुख़ अब्दुल्ला’।

१०-डा० फारुख अब्दुल्ला के दामाद, कश्मीर के वर्तमान मुख्यमंत्री उमर अबदुल्ला के जीजा और स्व० राजेश पायलट के नूरे चश्म ‘सचिन पायालट’।

११-मध्यप्रदेश के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुभाष यादव के पुत्र ‘अरुण यादव’।

१२पूर्व केन्द्रीय मंत्री दलबीर सिंह की पुत्री ‘शैलजा’।

१३-पूर्व लोकसभाध्यक्ष पी०ए०संगमा की बेटी ‘अगाथा संगमा’।

१४-जी०के० मूपनार के पुत्र ‘ जी०के०वासन’।

१५-पूर्व रक्षा राज्य मंत्री रहे सी०पी०एन०सिंह के सुपुत्र ‘आर०पी०एन०सिंह

१६-उत्तरप्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे जितेन्द्र प्रसाद के बेटे ‘जितिन प्रसाद’।

यह वे नाम हैं जो ‘टीम-मनमोहन’के बैट्स मैन हैं। अधिकांश ‘महाजन’ “नेहरू डायनेस्टी” के होनहार युवराज की युवापसंद हैं बिल्कुल ‘हिंदालियम के बर्तन, निखारदार चमकीले, सुंदर, कम खर्चीले’ की तर्ज पर। खैर यह सब तो उनका अंदरूनी मामला है। सामंतवाद से मुक्त २१वी सदी में गई जनता को तुलसी बाबा का दिया ‘सिली’ मंत्र दुहराना तो भुला ही देना चाहिये ‘कोऊ नृप होये हमें का हानीं, चेरी छोड़ न हुइहौं रानी’। शिट!

अब जब कांग्रेस का हाथ आम आदमी के साथ हो तो ‘हाँथों में हाँथ लियेऽऽऽ, दिलवर को साथ लियेऽऽऽ,हर मौके पे रंग कोका कोला के संग’ गुनगुनानें से किसी को क्या प्राब्लम? आफ्टर आल ‘वी आर मेड़ फार ईच अदर समझेऽऽऽऽऽऽ?


प्रस्तुतकर्ता सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ पर २:५० PM 7 टिप्पणियाँ

भारत भाग्यविधाता सुनें !

मंगलवार, २६ मई २००९

भारतीय मनीषा ‘राजाः कालस्य कारणम्’ और ‘यथा राजा तथा प्रजा’ के सिद्धांत की ओर इंगित करती है। लोकतंत्र का वर्तमान स्वरूप कोई आदर्श उपस्थित नहीं करता, बल्कि गरीबी,बेरोजगारी,अत्याचार,भ्रष्टाचारादि को सॆक्युलरिज्म के छ्द्म कवच से ढकने का ही प्रयास करता अधिक दीखता है।

‘सोंने की चिड़िया’ बननें के लक्ष्य नें ‘जगद्गुरुत्व’ के चिन्तन ‘सर्वजन हिताय,सर्वजन सुखाय’ और ‘माता भूमि पुत्रोऽहम् पृथिव्याम’ की चेतना को मानों अपहृत ही किया हुआ है। प्रकॄति के संतुलित उपयोग एवं पर्यावरण को स्थिर रखते हुए सब कैसे सुख और शान्ति से रहें, भारतीय चिन्तन की यही तो मौलिकता थी। निश्चय ही इस ज्ञान को विज्ञान-दर्शन का सुचिन्तित समर्थन भी था। विश्व को दिशा देंने के बजाये हम उस व्यवस्था के अनुगामी हो रहे है जिसका आधार न्याय संगत नहीं है।

प्रगति के इस पैशाचिक अट्टहास में मशीन.विज्ञान/तकनीकी,श्रम,बुद्धि एवं पूंजी या ‘पूंजीपंचायत’के एकाधिकारवादी सोंच ने संसाधनों के अन्यायपूर्ण शोषण को जहाँ स्वीकृति दी है वहीं माफियावद,नक्सलवाद,माओवाद,आतंकवाद जैसे संस्थानों को अपनें विनाश के लिए उत्पन्न भी किया है। आमजन प्रजा था, है और रहेगा।

माल्थस के जनसंख्या के ज्योमेट्रिकल प्रोग्रेशन की अन्तिम परणति, धर्मक्षेत्र को कुरुक्षेत्र बनाएगी, एडम स्मिथ के उपयोगिता के ह्रास के नियमानुसार आर्थिक मंदी, प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुन्ध दोहन से बार-बार आयेगी और डार्विन/आइंस्टीन प्रभृतियों का विज्ञानवाद अंततः हिरोशिमा दोहरायेगा, यही तो दीवार पर लिखे सन्देश थे, जिन्हें पढ़ और समझकर ‘गाँधी’ ने ‘ग्राम स्वराज्य’ और ‘ग्रामीण अर्थव्यवस्था’ के आदर्श को देश के सम्मुख रखा था। गाँधी से पूर्णतया सहमत न होते हुए भी कुछ मिलन-स्थल हैं जो स्वीकार्य हैं।

प्राकृतिक संसाधनों में देवत्व का आधान कर और पूज्य बनाकर जिस प्रकृति का सदियों से संरक्षण किया जा रहा था, उसे, अंधविश्वास बता आधुनिक विज्ञानवादियों नें जिस भाँति उपहास का पात्र बना दिया, उससे उनके ‘विज्ञान के दार्शनिक पक्ष’ से अनभिज्ञ होंने का ही परिचय मिलता है।

‘थ्री बाड़ी मोशन’ का ही मानवजाति से सम्बन्ध है, इस अधूरे विज्ञान के संवाहको को यह नहीं मालूम की सम्पूर्ण सौर परिवार न केवल एक इकाई के रूप में काम करता है वरन आवश्यकता पड़्नें पर अपने-अपनें प्रभावों का प्रयोग कर पृथ्वी का संरक्षण भी उन्हें आता है। पिण्ड़ो के मास,गति,आकर्षण,विकर्षण एवं विचलनादि का हम भले ही अध्ययन करते रहें, उन्हे तो इन सबका अवसरानुकूल प्रयोग भी आता है।

गाँवों में रहनें लायक स्थितियों एवं व्यवस्था का निर्माण करना,वृक्षों को उनका खोया सम्मान दिलाना, नदियों,जलाशयो,झीलों एवं कुओं को उनका गौरव लौटाना,कृषि,कुटीर उद्योग को स्थापित और सम्मानित करना, सौर उर्जा का अधिकाधिक प्रयोग करना, रासायनिक उर्वरकों को विदा कर पशुधन और जैविक खाद का प्रयोग कर धरती को माँ का खोया हुआ सम्मान वापिस दिलाना- जैसे कामॊ से ही हम पितरों के ऋण से उरिण हो सकते है और भावी पीढ़ी के आदर का पात्र भी।

‘पूंजीपंचायत’ के आधार स्तम्भ विज्ञानविद समाज को दिशा दिखाने वाले अग्रचेता ऋषियों की तरह नहीं दलालों जैसा व्यवहार कर रहे प्रतीत हो रहे हैं। संहारक हथियार ही नहीं संहारक तकनीकी के प्रयोग का प्रचालन जिस भाँति बढ़ रहा है उससे उनकी स्वायत्तता पर भी प्रश्नचिन्ह लगता है। ऎसे विज्ञानविदों के हाँथो क्या मानवता सुरक्षित है, यह हम सब को समय रहते सोंचना ही पड़ेगा?

प्रकृति अपना संरक्षण करना जानती है। करोड़ों की बलि लेकर भी वह अपना संरक्षण करेगी। उसे नालायक बेटों से अधिक अपनी भावी संतति की चिन्ता है। पृथ्वी को कामधेनु-वत्सला भी कहा गया है जैसे गाय अपनें ऊपर बैठे मच्छर मक्खियों को पूँछ के एक प्रहार से तितर-बितर कर देती है या पीड़ादायक ढ़ंग से दुहने वाले को लात के एक प्रहार से भू लुण्ठित कर देती है, वैसे ही एक झटके में धरती के बोझों को छिन्न-भिन्न कर देंना उसके लिए जरा भी कठिन नहीं है।

मोहासक्त हुए हम, समृद्धि की नाव में बैठ, सुविधा की नदी के प्रवाह में बहते हुये ५० वर्ष बाद रेत के किस बियाबान में टिकेगें, यह बता पाना अभी तो मुश्किल है। हाँ एक बात निश्चित है, नोंटों से भरे बैग वहाँ काम न आयेंगे। हजारों वर्ष पहले महर्षि वेदव्यास का शाश्वत उदघोष मानों फिर समय की आवश्यकता बन प्रस्तुत हो रहा हैः-

‘ऊर्ध्वबाहुर्विरोम्येष, न च कश्र्चिछृणोति में।
धर्म्मादर्थश्च कामश्च, स धर्म्मः किन्न सेवयते॥



प्रस्तुतकर्ता सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ पर १२:४५ PM 4 टिप्पणियाँ

ज्योतिष और विज्ञान

शुक्रवार, २२ मई २००९

प्रश्न उठता है कि विज्ञान क्या है? गणित की भाँति २+२=४ जैसी पूर्णता क्या विज्ञान में होती है? सारी गिनती-मिनती और पूर्ण तैयारी के बाद कई बार राकेट/विमान नष्ट हुए है और अन्तरिक्ष यात्री/विमान यात्री मारे गये हैं। प्रयोग की अवस्था में यह संभावनाएँ रहती हैं इससे इंकार नहीं किया जा सकता किन्तु जब सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक प्रक्रिया सम्पूर्ण हो चुकी हो उसके बाद इस प्रकार की दुर्घटनाऎं क्या इंगित करती हैं? इसका मात्र इतना ही अर्थ है कि मानवीय भूलों, तंत्रीय खामियों को सिरे से नहीं नकारा जा सकता। इससे भी ऊपर एक और तथ्य, कि जिस अन्तरिक्ष में/आकाश में राकेट/विमान भेजा जा रहा है वहाँ अचानक पूर्वानुमान के विपरीत वातावरणीय परिवर्तन प्रकट हो जाए। तात्पर्य यह कि पर्यवेक्षण, तर्क,सिद्धन्त,तकनीकी आदि के पुष्ट आधारों के बाद भी चूक होती है। इसी भाँति ज्योतिष, हजारों वर्ष प्राचीन, खगोलीय/ग्रहीय पर्यवेक्षण, परीक्षण के बाद ग्रहों के प्रभावों का परिणाम बतानें वाला विज्ञान है। सत्य तो यह है कि इस क्षेत्र में सैकड़ों वर्षों से कोई नई शोध ही नहीं हुयी है। पुरानें और जीर्ण-शीर्ण साधनों से किया जानें वाला फलित गलत क्यों होता है यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण तो यह है कि सही कैसे हो जाताहै? ज्योतिषी का भाग्य, जुगाड़ कभी-कभी काम कर जाता है।

फलित ज्योतिष के लिए आवश्यक है कि संहिता,गणित और फलित का विस्तृत ज्ञान होंना चाहिये। पंचाग दृग ज्योतिष पर बनाना पहली शर्त है। आज पंचांग बन रहे हैं लहरी एफेमरी जो नाटिकल एल्मनॅक पर आधारित है, के आँकड़ों पर। वह भी मध्यगतिमान (मीन) पर। वह भी एड्वाँस आँकड़ो पर। १००-१०० साल की एड्वाँस एफेमरीज़ आती हैं। कई पंचांग खरीदिये और फिर देखिये उन के अन्तर। कम्प्यूटर प्रोग्राम में चूकि डाटाबेस वही एफेमेरी/अल्म है अतः समान चूक वहाँ भी है। ग्रह आकाश में सदैव एक निश्चित गति से चलते हैं यह मुख्य आधार है।अन्तरिक्ष में, सौर धब्बो के अधिक बनने/ कम बननें या किसी केतु (कामेट) के संचरण या अन्य किसी अभिनव खगोलीय घटना वश ग्रहों की गति, भ्रमण स्थिति आदि पर विचलनकारी प्रभाव पड़्ते हैं, उनका आँकलन तभी संभव है जब दृग ज्योतिषीय आधार पर पंचांग निर्मित हों। पहले करण आदि शोधन कर आकाशीय ग्रह स्थिति से साम्य रखते हुए पंचांग बनते थे। अब वैसे शुद्ध पंचांग बनाना लोग भूलते जा रहे हैं।

एक-महत्वपूर्ण बिन्दू है निरयण और सायण गणना का। प्रारब्ध की व्याख्या निरयण से और जातक की वर्तमान स्थिति की गणना सायण से या इन दोंनों के तारतम्य से करनी चाहिये, यह विवेचना और शोध का विषय है। दोंनों का तारतम्य रखे बिना चूक होगी। दूसरा-बिन्दु है जन्म,प्रश्न या घटना के सही समय का, समय की शुद्धता पर संशय हो तो सिद्धान्तानुसार सही करे और कुछ प्रश्नों को जाँच कर, समय स्थिर करें। तीसरा-बिन्दु है स्थानीय समय का सही मापन। चौथा-बिन्दु है, लग्नादि की शुद्धता और सही ग्रह स्थिति का जन्मांक में निरूपण। मेदनीय ज्योतिष के विशिष्ट सिद्धान्त अलग हैं। कहनें का तात्पर्य यह कि लगभग ७० बिन्दुओं को ध्यान में रखकर कुण्ड़ली पर फलित करें। यह सब नहीं कर सकते हैं तो कृपाकर ज्योतिष को बदनाम न करें। पहले ज्योतिषी को राज्याश्रय प्राप्त होता था, घर चलानें की चिन्ता उसे नहीं सताती थी, इसीलिए मन रमा कर वह कार्य करता था। ११-२१-५१ में फलित जानने और बतानें वाले एक दूसरे को मूर्ख बना रहे हैं।अर्वाचीन काल में स्व० कृष्णमूर्ति जी नें सत्याचार और नाड़ी ग्रन्थों को आधार बना एक नई विधा के रूप में कृष्णमूर्ति पद्धति का पुनरुद्धार किया था जो घटना के सही समय निरूपण में अधिक फलदायी होती है।

शरद कोकास जी नें डा० जयन्त नार्ळीकर जी के नाम से धमकानें का अभद्र प्रयास किया है वह उचित नहीं है। मैंनें यद्यपि शौकिया ज्योतिष सीखी थी तो भी मै २० में से १८ कुण्ड़लियों में स्त्री-पुरुष में अन्तर बता दूँगा,शर्त यह कि मुझे १५ दिन का समय और २५०००रु० दिया जाए। साथ ही अत्यन्त गंभीरता और विनम्रता से मैं श्री नार्ळीकर को चुनौती देता हुँ कि अगले एक वर्ष में किस तिथि को भूकम्प आयेगा उसकी निश्चित जानकारी दें तो मै उन्हें २५००० रुपया पुरुष्कार स्वरूप भेंट करूँगा।यह दोनो शर्ते एक साथ मान्य होंगी। शरद जी नें एक आवश्यक प्रश्न जन्म समय को लेकर उठाया है। जन्म चाहे सामान्य हो या सीज़ेरियन से- गर्भनाल से विच्छेदन का समय ही जन्म का सही समय माना जायेगा।

ज्योतिष विज्ञान है यह आनें वाले वर्षों में विज्ञान ही सिद्ध करेगा। विज्ञान अभी युवा हो रहा है, इसीलिए गर्वोन्न्त बन रहा है और कुछ कम्युनिस्ट टाइप मूर्ख बिना नए आदर्श स्थापित किये पुरानें आदर्शों/परंपराओं/ज्ञान/विज्ञान को ध्वस्त करनें के लिए उसका गलत-सलत इस्तेमाल कर रहे हैं। हफ्तों तक मीडिया पर धूम-धड़ाके के साथ जीवंत प्रसारित किये गये ‘हेड्रान कोलाईड़र’ का क्या हुआ? अरबों-खरबों रुपये के खर्च पर पलनें वाला विज्ञान अभी तक यह भी नहीं जानता कि मंगल लाल क्यों दिखता है, शनि चित्र-विचित्र रंगों से युक्त क्यों है, बृहस्पति पीला क्यों दिखता है आदि और इनका पृथ्वी और पृथ्वी पर रहनें वालों पर क्या कोई प्रभाव पड़ता है? वह भी तब जब वह इसी सौरमण्डल के सदस्य हैं जिसमें हमारी पृथ्वी है। अनेकानेक प्रश्न हैं जिन्हें विज्ञान जानने का प्रयास कर रहा है और यह प्रयास जारी रहनें भी चाहिये, किन्तु पिछला सब व्यर्थ है यह घमण्ड वैज्ञानिकता के रेशनेल को नष्ट करता है।

अंत में एक बात ज्योतिषियों और ज्योतिष अनुरागियों से कहना चाहता हूँ, ज्योतिष को वेदों का अर्थात ज्ञान का नेत्र कहा गया है, अपनें तर्क रहित वक्तव्य से उसे गरिमा रहित मत कीजिये। ६७ तक जन्में व्यक्तियों को कष्ट झेलनें पड रहे होंगे जैसे वक्तव्य ज्योतिष के सिद्धान्त के ही नहीं तर्क के भी विपरीत है। ज्योतिष अत्यंत श्रमसाध्य कार्य है। सतत अध्यवसाय से ही पुष्ट होगी, जिसमें अधिकांश ज्योतिषी पिछड़ रहें है। ज्योतिषियों से मेरा एक प्रश्न है--पूर्वीय क्षितिज पर उदय होंने वाली राशि को ‘लग्न’कहते हैं। हर दो घण्टे में यह राशि बदलती रहती है। अर्थात जन्म, प्रश्न या घटना के समय जो राशि पूर्वी क्षितिज पर होती है वह महत्वपूर्ण होती है। “प्रश्न है कि यह पूर्वीय क्षितिज क्यों महत्वपूर्ण है?” समाधानपूर्ण उत्तर देने वाले को ५००रु० प्रोत्साहन स्वरूप प्राप्त होंगे।

प्रस्तुतकर्ता सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ पर ९:१७ PM 5 टिप्पणियाँ

साम्यवाद को लाल सलाम

शनिवार, १६ मई २००९

केरल तथा बंगाल के चुनावों में मिली करारी हार क्या अनपॆक्षित है? ‘मार्क्स’ सम्प्रदाय के लोग भले ही न मानें किन्तु बड़ी अम्मा बननें के चक्कर में उनका खुद का सूपड़ा साफ हो गया। अराष्ट्रवादी गतिविधियॊं को क्रान्ति बतानें वाले और झूठ को सच बनाने मॆ माहिर मार्क्स सम्प्रदाय के पैरों के नीचे से जमीन अनायास ही नहीं खिसकी है। प्रसिद्ध साम्यवादी विचारक,लेखिका और सामाजिक कार्यकर्त्री महाश्वेता देवी की मानें तो ३२ सालों में मार्क्स सम्प्रदाय के शासन नें बंगाल को न केवल अंधकार युग में पहुँचा दिया है वरन् जहन्नुम बनानें में कोई कसर बाकी नहीं रखी है।

१४ मई को ‘रेड़िफ डाट काम की, इन्द्रानीराय मित्र को दिये साक्षात्कार में वह कहती हैं कि आँकड़े बताते हैं कि शिशु मृत्यु दर, महिलाओं के प्रति अपराध और वेश्यावृत्ति में बंगाल सब प्रान्तों की तुलना में अग्रणी रहा है। ५५००० से अधिक कल कारखानें बन्द हो चुके है, १५ लाख से अधिक कामगार बेरोजगार हो चुके है तथा लाखों नौजवान रोजगार के लिए श्रम विभाग के चक्कर काट रहे हैं। उनके पास एक लम्बी फेहरिस्त है सरकार की नाकामयाबी और अकर्मण्यता की। याद रखनें की बात है कि लगभग २० साल पहलें उन्होंने ही मार्क्सवादियॊ पर आरोप लगाया था कि, न्यूनतम मजदूरी दिये जानें की माँग करनें पर खुद ज्योति बसु सरकार नें अपनें ही कामरेड़्स को नक्सलवादी कहकर मरवाया था।

मार्क्सवादी सरकार बनवानें मे सक्रिय भूमिका निभानॆ और सरकार को समर्थन देंने वाली महाश्चेता जी कहती हैं कि ३२ बरसों में यह सरकार, जनविरोधी सरकार में कैसे तब्दील हो गई, इसकी वह खुद गवाह है। महाश्वेता जी यह भूल रही हैं कि दुनिया में जहाँ भी मार्क्स सम्प्रदाय की सरकार बनीं है, सभी जगह यह कहानी दुहरायी गयी है चाहे वह फिडेल कास्ट्रो का क्यूबा हो, सोवियतों वाला रूस हो या फिर चीन। ७०-७० साल बन्द कमरों में रखनें के बाद भी जरा सी खुली हवा मिलते ही, रूस को बिखरते सबनें देखा है। देखा है कथित वैज्ञानिक दर्शन पर आधारित उस व्यवस्था को, जिसके नेंताओं के भ्रष्टाचार की सड़ाँध के रूप में पूरी दुनिया में रूसी पूँजी ‘कैपिटल’ का प्रचार कर रही है। माओ की रंगीनियाँ भी अब किसी से छिपी नहीं हैं। स्विस बैकों में जमा धनवानों की सूची में भारतीय सेक्युलर शूरवीरों के बाद रूसियो और चीनियों का ही नम्बर है। रूस को संशोधनवादी कहनें वाले चीन नें, बढ़्ती आबादी और उसकी जरूरतो को ध्यान में रखकर, मार्क्स सम्प्रदाय की नीतियों से य़ूटर्न न लगाया होता तो अभी तक धूल चाट रहा होता। लेकिन इससे उनके विस्तारवादी स्वरूप पर कोई अन्तर नहीं पड़ा है। नेपाल और लंका में उनकी हरकतों से यह पूष्ट होता है।

प्रत्यक्ष में लोकतंत्र का हिमायती बनना और परोक्ष में नक्सल्वादी-माओवादी पालना और पहले ही से शोषित-पीड़ित जनता की आँड़ में खूनी सत्तापलट करानें का खेल अब किसी से छिपा नहीं है। दलितों,आदिवासियों, अल्पसंख्यकों को गलत सलत इतिहास और धर्म की व्याख्या कर भड़्कानें का खेल का खुलासा हो चुका है। अगले वर्ष के अन्त तक केरल और बंगाल में चुनाव होंने हैं। सरकारें बचाए रखनें के लिए इन्हीं सब धत कर्मों का इस्तेमाल किया जानें वाला है। क्या भारतीय जनता और केंन्द्र सरकार, इन खतरों को समझ इन धूर्तों को सहीजगह पहुँचा पायेगी? जनता तो शुरुआत कर चुकी है-केन्द्र में आरूढ़ होंने वाली सरकार क्या वैसा कर पायेगी, यह यक्ष प्रश्न है।


प्रस्तुतकर्ता सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ पर २:३७ PM 8 टिप्पणियाँ

भारतीय राजनीति में विदेशी हस्तक्षेप : गम्भीर प्रश्न

गुरुवार, १४ मई २००९

समप्रभुता समपन्न देश की राजनीति में विदेशी हस्तक्षेप को स्वीकार नहीं किया जा सकता। कारण कोई भी हो। इस प्रकार के कृत्यों की न केवल भर्त्सना होंनी चाहिये वरन् भविष्य में ऎसे कृत्य न हों इसका निश्चित उपाय भी करना चाहिये। प्रश्न यह उठता है कि दूसरे देश ऎसे प्रयास करनें की सोंच भी कैसे पाये? क्या हमारे राजनैतिक दल इसमें कोई भूमिका रखते हैं? मुझे इसमें विगत की कुछ घटनाएँ कारक के रूप में नजर आती हैं।

प्रारम्भ, विश्व व्यापर संघ का सदस्य होंनें, जिसके चलते विदेशी धन का प्रवाह एशियाई देशों विशेषकर चीन एवं भारत में प्रचुर मात्रा में हुआ, से होता है। धन ही एकमात्र कारण नहीं था। भारत एक बड़ी मण्ड़ी भी साबित हो रहा था। जब हम विदेशी धन एवं उत्पाद का स्वागत कर रहे हों, तब बाजार और अर्थ व्यवस्था में निवेशकों की चिन्ताओं को दरकिनार नहीं कर सकते। विशेषकर विदेशी निवेशकों एवं व्यापरियों को जब यह लग रहा हो कि सहयोगी दल विशेषकर साम्यवादी,जिनके समर्थन से श्री मनमोहन सिंह की सरकार चल रही थी, उनकी गतिविधियाँ खुले व्यापर की परिकल्पना के विरुद्ध थीं। परिणामतः भारत से व्यापारिक क्षेत्र में खुलेपन की जैसी आशा की जा रही थी वह अवरुद्ध हुआ। आइये देखते हैं कि साम्यवादी ऎसा क्या कर रहे थे जिसके चलते ऎसी धारणा बनीं।

साम्यवादियों द्वारा SEZ नीति पर जिस प्रकार हंगामा किया गया और चीन से (SEZमूलतः चीन की परिकल्पना है) समझकर ( अनुमति लेकर) ही यह योजना आगे बढ़ेगी ऎसा सन्देश दिया गया। राजरहाट,नंदीग्राम आदि भी उसी प्रवृत्ति को दर्शाते रहे हैं। परमाणु समझौता तो अभी भी संदेह में है।हथियारों के विभन्न सौदे हों या इज़राइल से सामरिक समझौता या फिर आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष की बात, सभी जगह साम्यवादियों का हस्तक्षेप जारी रहा। साम्यवादियों द्वारा लोकतांत्रिक मुखौटा लगाकर नक्सलवादियों,माओवादियों तथा अल्पसंख्यक अतिवादियों को हरावल दस्ते के रूप में इस्तेमाल करना भी अब किसी से छुपा नहीं है, यह भी चिन्ता का कारण रहा। विशेषकर नेपाल की हाल के घटनाक्रम के बाद, यह चिन्ता और बढ़ी है। २मई २००४ में बेल्जियम में आयोजित साम्यवादियों के अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में श्री ‘प्रचण्ड’ के नए सिद्धान्त को समझनें की आवश्यकता हैः-

Paper Presented By The Anti-Imperialist Revolutionary Forum Nepal At The International Communist Seminar Organised By Workers Party Of Belgium (PTB) On 2-4 May 2004.

“Marxism-Leninism-Maoism is the basic theory and Prachanda Path is guiding ideas. In the Nepalese context, Marxism-Leninism-Maoism becomes basic principal, theory and philosophy for the revolution and Prachanda Path serves and guiding ideas or principal. It is just as happened in the Russian Revolution that Marxism was the basic theory and Lenin’s ideas were guiding principal and Marxism-Leninism was the basic theory and ideas of Mao Tsetung were the guiding principal in the context of Great Chinese Revolution.”
&
“Here, it would be important to note that the particularity of the ideas of Chairman Prachanda deserves generality in the context of world revolution. Chairman Prachanda has laid a general foundation to pave a way for the New Democratic and Socialist Revolution in the 21st century and thus to advance to Communism synthesizing the five years practise of People’s War in the second historic Conference of the Party, held on 2001, he documented, “21st century shall be the century of people's wars, and the triumph of the world socialist system. Apart from this, it also shows that there has been a significant change in the prevailing concept of model of revolution after 1980. Today the fusion of the strategies of armed insurrection and protracted people's war into one another has been essential. Without doing so, a genuine revolution seems almost impossible in any country.”

यही नहीं समय समय पर प्रधानमंत्री श्री मनमोहन सिंह खुले तौर पर साम्यवादियों पर ब्लैकमेल करनें तथा रोड़े अटकानें की नीति की शिकायत भी करते रहॆ। यह अलग बात है कि श्रीमती सोनिया माइनों गांधी युवराज राहुल गांधी( चुनाव आयोग में दाखिल कैम्ब्रिज की डिग्री के अनुसार राल विंसी) के सयानें होंने तक उनसे ‘नाइटवाचमैन’ की भूमिका करवानें को ज्यादा आवश्यक मान,सब कुछ सहकर भी सरकार चलानें को बाध्य करती रहीं। भारतीय अर्थ व्यवस्था पर इसके प्रभावों एवं मनमोहन सिंह की भूमिका को रेखाँकित करते हुए १मई २००९ के ‘वालस्ट्रीट जरनल’ (http://online.wsj.com/article/SB124109098695372847.html ) में राज़ीन सैली का आलेख पढ़कर इसका अन्दाजा लगाया जा सकता है। कुछ महत्वपूर्ण अंश इस प्रकार हैः-

‘This explanation just does not wash. Mr. Singh has impeccable academic credentials and is by all accounts incorruptible. He deserves credit for his performance as finance minister in the early and mid 1990s—though at least as much credit should go to the then Prime Minister Narasimha Rao, who had to take the tough decisions. But Mr. Singh has proved a hopeless decision maker as prime minister.’

‘He has lacked the political instinct and moral courage to take tough decisions, hiding behind the fig leaf of Mrs. Gandhi and the troublesome left-wing parties that propped up the government. The latter withdrew their support in mid-2008, and the government won a vote of no-confidence, yet—not surprisingly—market reforms did not materialize. Sadly, Mr. Singh proves the rule that academics should generally be "on tap" but not "on top".’

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‘The whole reform program depends crucially on the prime minister himself. Mr. Rao and A.B. Vajpayee proved their mettle, despite heavy political constraints. Mr. Singh has failed; he should bear much of the blame. That blame must also be shared with the other sweet-talking, weathervane-members of his dream team. The Congress party does not deserve to be re-elected, and the dream team does not deserve to continue in office.’

‘The question is whether an alternative Bharatiya Janata Party-led government would do any better. Yes, if it has a decisive leader with a core of able reformers. No, if its leader follows the dictates of short-term opportunism and inevitably messy coalition politics. The danger is that the election will create an even more fractured political landscape, with an even weaker, more unwieldy governing coalition. The nightmare scenario is of a new Union government held hostage by surging caste-based parties in north India and their corrupt leaders. That would scotch further major market reforms and deepen India's institutional malaise.’

कल टेलीविजन पर श्री सीताराम येचुरी ‘यू०एस० चार्ज’डि अफेयर्स मि०पीटर बर्लीघ’ के श्री लालकृष्ण आडवानी, श्री चन्द्रबाबू नायडू, श्री चिरंजीवी, श्री चद्रशेखर राव तथा अन्य नेताओं से मिलनें पर आपत्ति कर व्यक्त कर रहे थे। श्री सीताराम येचुरी और उनका साम्प्रदायिक ‘मार्क्सपरिवार’ जो रुस-चीन के इशारे पर उट्ठक-बैठक करता है खूद अपनें गिरहबान में झाँक कर बताएँगा कि गरीब/शोषित की बात करनें के लिए उन्हें रूस-चीन की जरूरत क्यों पड़ती है? नेपाल समेत सम्पूर्ण भारत में नक्सलवादी/माओवादी खूँरेजों को धन और हथियार कौन मुहैय्या करवाता है? प्रचण्ड की तरह करात-थीसिस कौन और क्यों बनवा रहा है? भारत को सामरिक तौर पर चारो तरफ से कौन घेरे में ले रहा है? यह सब किसकी सह पर हो रहा है और उसमें ‘मार्क्सपरिवार’ की क्या भूमिका है, कौन बताएगा? अगर ‘मार्क्सपरिवार’ अपनें दुष्कर्मों को जायज ठहराता है तो विदेशी ‘महाजन’ अपनें धन और हितों की रक्षा के लिए अगर प्रयास करता है तो उसे किस सिद्धान्त पर गलत ठहराया जासकता है? दीवाल पर लिखी जा रही इबारत साफ पढ़नें में आरही है‘‘एक ऎसी सरकार जो साम्यवादियों की बैसाखी पर न हो” यही उनका ध्येय दिखता है। सरकार काँग्रेस की बनें या भाजपा की इस से उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता है। यह एक गंभीर स्थिति है जिसके दूरगामी ऎतिहासिक परिणाम हो सकते हैं। इस पाप कर्म के लिए भावी इतिहास में साम्यवादी याद रखे जानें चाहिये।


प्रस्तुतकर्ता सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ पर ३:१० PM 0 टिप्पणियाँ

आयुर्वेदःएक सम्पूर्ण चिकित्सा पद्धति

शुक्रवार, ८ मई २००९

सड़क के किनारे ऊँटगाड़ी या टेन्ट लगा घुमन्तू कबीले के लोग जंगल-पहाड़-गाँव नापते बहुधा हमारे आप के शहर में अधिकांशतः गुप्त या विषम रोगों के डाक्टर बन सपरिवार प्रकट हो जाते हैं। इसी यायावरी के चलते जंगल-विज़न में साधू सन्तों की सेवा से उन्हें कृपावश कभी कभी अचूक नुस्खे और जड़ी बूटियों को पहचाननें की समझ भी मिल जाती थी। आज के समय में ऎसे नीम-हकीमों पर भरोसा नहीं किया जा सकता जहाँ यह एक तथ्य है वहीं सामान्य और गरीब जनता तक चिकित्सा पहुँचे इस पर भी गंभीर विचार की आवश्यकता है। आम आदमी की चिकित्सा को सरल बनानें के लिए लगभग १०० वर्ष पहले एक किताब लिखी गयी थी ‘इलाज़ुल गुरबा’। आयुर्वेद एवं यूनानी की अनुभूत एवं सर्व सुलभ सस्ती औषधियों पर अधारित उपयोगी पुस्तक है। वस्तुतः किसी भी चिकित्सा पद्धति के ‘निदान-औषधि-अनुपात एवं अनुपान’ यह चार आवश्यक अंग हैं किन्तु उससे भी अधिक महत्वपूर्ण है औषधि का निर्माण।

आजकल आयुर्वैदिक औषधियों को बनानें में जिन आधुनिक संसाधनों का प्रयोग, भारी माँग के चलते हो रहा है वह ठीक नहीं है। आयुर्वैदिक औषधियाँ तभी प्रभावी होंगी जब वह पारंपरिक ढ़ंग से तैयार होंगी। अधिक माँग की पूर्ति के लिए कुछ वर्ष पहले कन्नौज के ‘गुलाबजल’ उत्पादकों नें मिट्टी के परंपरागत भभकों के बजाय स्टील के, गैस से चलनें वाले भभकों का इस्तेमाल किया था। गुलाबजल का आसवन तो जल्दी हुआ लेकिन उसकी शीतलता प्रदायक मदिर सुगन्ध जाती रही। परिणामतः खासे नुक्सान के बाद पुरानी व्यवस्था पर चलना पड़ा।

एक शब्द है ‘परिपाक’। परिपक्व, पचना, पचाना आदि। क्या अर्थ है? सामान्यतः हम आहार पके हुए अन्नादि का ही लेते हैं। फिर यह उदरस्थ आहार तुरन्त क्यों नहीं हजम हो जाता? इस आहार को उदर में पचानें, परिपाक होनें में सहायक होती है ‘जठराग्नि’। चारों वेदों का प्रारम्भ अग्नि या ऊर्जा की प्रशस्ति -‘अग्निमीळे पुरोहितम्’ आदि से ही प्रारम्भ होता है। ‘एक एव अग्नि बहुधा समिद्धः’- जिस प्रकार एक ही अग्नि ८ रूपों मे विभक्त हो पिण्ड़ से ब्रह्माण्ड़ तक को नियंत्रित करती है वैसे ही एक ही अग्नि मनुष्य शरीर में १८ रूपों (भागों) मे व्याप्त हो अलग अलग अंगों एवं कार्यों को नियंत्रित एवं संचालित करती है। उसी के एक रूप को ‘जठराग्नि’ कहा जाता है जो उदरस्थ आहार का परिपाक कर खाये हुए पदार्थ को रस,रक्त,अस्रक,माँस,मेदा,अस्थि,वीर्य एवं ओज में परावर्तित करती है। यह अग्नि ही है जिससे शरीर में एक प्रकार की हरारत,गर्मी (९८०) रहती है। इसी के मन्द होंने पर चिकित्सक कहते हैं कि ‘मंदाग्नि-रोग’ हो गया है या ड़ाइजेशन वीक हो गया है। उसी (अग्नि) का सूक्ष्मतम वायव्य रूप ‘हंस’ प्राण, शिरोकपाल में रहता है जिसको निष्क्रामित करनें के लिए मृतक के कपाल का भेदन किया जाता है। भलीभाँति निष्क्रमित (release) न होंने पर मृतक प्रेत आदि योंनि में जाता है, ऎसी मान्यता शास्त्रों में दी गयी है।

उक्त विस्तृत विवरण का उद्देश्य इतना है कि औषधि निर्माण की प्रक्रिया में औषधियों के परिपाक होंने,सम्मिलित होंने,मिश्रित होंने के लिए आवश्यक है कि शास्त्रोक्त प्रक्रिया ही अपनायी जाए तभी वह लाभप्रद होंगी। यह अनायास नहीं है कि कहीं कण्डे की,कहीं इमली की लकड़ी कहीं शमी आदि की लकड़ी की अग्नि अलग-अलग औषधि को पकानें और कहीं मिट्टी, काष्ठ तो कहीं ताम्रादि के पात्र प्रयोग किय जाते थे। आवश्यकता पारम्परिक तरीकों को कारण सहित जाननें और तद्नुरुप नये तरीके इज़ाद करनें की है।

आयुर्वेद की अभिकल्पना मात्र रोग से तात्कालिक मुक्ति की नहीं बल्कि रोग को समूल-जड़ से समाप्त करनें की रही है। आयुर्वैदिक चिकित्सा के कम असर दायक होने में हमारा आहार विहार भी एक बड़ा कारण है। आज अधिकांश अन्न का उत्पादान य़ूरिया तथा अन्यान्य रासायनिक खादों पर आधारित है जो शरीर के लिए उपयुक्त नहीं है। संभवतः चना, यव और धान आदि कुछ ही अन्न हैं जो रासायनिक खादों से बचे हुए है। वैद्यों की प्रिय ‘मूँग’ आज समझदार वैद्य इसीलिए कम इस्तेमाल कर रहे है। इंजेक्शन लगा बड़ी-बड़ी लौकी तैयार हो रही है। दूध की जगह यूरिया का घोल मिल रहा है। आधुनिक विज्ञान जनवादी होते-होते कितना जनघाती हो गया है? तात्पर्य यह कि या तो हम आयुर्वैदिक औषधियों की मात्रा तत्काल लाभ के लिए बढ़ाए (यह रोगी की शारीरिक स्थिति पर निर्भर करेगा) या फिर रोगी का भोजन यूरिया मुक्त, कम से कम तब तक तो अवश्य हो जब तक वह स्वास्थ्य लाभ नहीं कर लेता।

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर कहते हैः ‘जो शिक्षा बीस-पच्चीस साल भी ब्रह्मचारी न रहनें दे, उस शिक्षा को कूड़े-कर्कट के ढ़ेर की तरह आग लगा देना ही अच्छा’। यह असंतुलित विहार ही है जिसके चलते मधुमेह जैसे रोग दिन प्रतिदिन बढ़्ते चले जा रहे है। मधुमेह वस्तुतः रोग नहीं घुन है जो शरीर को चाटता रहता है परिणामतः कालान्त्तर में य़क्षमा,कारबंकल,आई हैमरेज, ब्लड़्प्रेसर एवं हृदय रोग हो जाते है। ३० वर्ष के आस-पास जिसे मधुमेह होता है उसका साठ साल तक जिन्दा रहना मुश्किल हो जाता है। असंयमित और श्रम रहित जीवन ही मूल कारण है।

आयुर्वेद मात्र तीन शब्दों में व्याख्यायित किया गया हैः- ‘हित भुक’-‘ऋतु भुक’-‘मित भुक’। स्वयं (वात,पित्त,कफ़) की प्रकृति जानकर तदनुकूल जो हित कर है और जो उस ऋतु में उपलब्ध हो तथा जितनी भूख हो उससे कम खाय़ेँ और स्वस्थ्य रहें। धनवंतरि,चरक शुश्रुत आदि की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। आयुर्वेद एक समग्र एवं पूर्ण पद्धति है जिसका उद्देश्य जनता जनार्दन को तन मन से स्वस्थ्य एवं उपयोगी मनुष्य बनाना रहा है। आधुनिक चिकित्सा पद्धति कार्य का उपचार करती है न कि कारण का और इसी कारण वह अभी भी प्रायोगिक अवस्था में है और आगे भी रहेगी।


प्रस्तुतकर्ता सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ पर ४:३४ PM 3 टिप्पणियाँ

॥ स्मृतिशेष कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर ॥

बुधवार, ६ मई २००९


७ मई १८६१-७अगस्त १९४१
श्रद्धांजलि
नमन बंगाल की उस पवित्र भूमि को जिसनें रवीन्द्रनाथ जैसा तपस्वी संत
उत्पन्न कर न केवल बंगाल वरन् संपूर्ण देश को गौरवान्वित किया।
साम्यवादियों के कुचक्र में फंसे बंगाल निवासियों को कविगुरु की यह कविता
इस लिए समर्पित कि शायद उन्हें अपना गौरव और कर्तव्य याद आ जायेः

Where The Mind is Without Fear


Where the mind is without fear and the head is held high
Where knowledge is free
Where the world has not been broken up into fragments
By narrow domestic walls
Where words come out from the depth of truth
Where tireless striving stretches its arms towards perfection
Where the clear stream of reason has not lost its way
Into the dreary desert sand of dead habit
Where the mind is led forward by thee
Into ever-widening thought and action
Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake


प्रस्तुतकर्ता सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ पर ३:०३ PM 1 टिप्पणियाँ

मनमोहन जी लख़वी को लेकर करेंगे क्या?--ज़रदारी

गुरुवार, ८ जनवरी २००९

रात में देखा सपना इतना अटपटा है कि न छुपाते बन रहा है और न बताते बन रहा है।न बतानें पर देश की इज्जत खतरे में पड़्ती है और छुपाता हूँ तो अपनें प्रिय पड़ोसी पाकिस्तान की जान। तो भाई ब्लागर बन्धुओं मैं सपना बता कर अपना राष्ट्रधर्म निभाये दे रहा हूँ बाकी आप जानें और प्रधानमंत्री जी जानें --

ट्रिंग ट्रिंग.....हाँट लाइन पर फोन की घंटी की घन घन घनाहट होती है, हलो, मनमोहन भाई ज़रदारी बोल रहा हूँ.....हाँ... हाँ इस्लामाबाद से...पाकिस्तान से !

मन ही मन खुश होते और सोंचते हुए कि अच्छा अब जब अमेरिका नें कान मरोड़ा तब बच्चू को समझ में आया...हाँ...बोलिये ज़रदारी साहब....सलाम वालैकुम। मनमोहन जी ड़ाढ़ी खुजाते हुए बोले...

वालैकुम अस्सलाम! अरे भई मनमोहन भाई आप से एक बड़ी शिकायत है!

शिकायत मुझसे? क्या बात कर रहे ज़रदारी साहब? शिकायत तो मुझे आप से होंनी चाहिये...एक तो आप के लोग हमारे लोगो को मारते हैं..सरे आम पकड़े जाते है...सारे सबूत आप को दिये जाते हैं फिर भी आप लखवी और जो दूसरे मास्टर माइंड़ है उन्हें हमें सिपुर्द करनें के बज़ाय उल्टा मुझसे शिकायत कर रहे हैं?

अमाँ मनमोहन भई आप तो पारलियामेन्ट जैसा भाषण देंने लगे..अरे भई इसी लिए तो मैनें आप को इतनी रात प्रोटोकाल छोड़्कर फोन लगाया है कि कोई दूसरा न सुन ले...हाँ तो म्याँ मैं यह कह रिया था कि वो लखवी को देंनें में हमें, वैसे तो कोई ऎतराज नहीं है......लेकिन लखवी को लेकर आप करेंगे क्या?

करेंगे क्या का, क्या मतलब?

अरे भई अगर हम उसे आप को दे भी देते हैं तो उसका आप करेंगे क्या??

अरे! ज़रदारी साहब मुकदमा चलायेंगे...उसका जुर्म साबित करेंगे और सज़ा देंगे?

क्या मनमोहन भाई..क्यों इतनीं रात गये मज़ाक करते हैं!

बुरा मानते हुए..मज़ाक? कैसा मज़ाक?मज़ाक तो आप कर रहे हैं।

अरे मनमोहन भाई..समझो हमनें लखवी को आप को दे दिया....फिर आप मुकदमा चलायेंगे....समझो इसमें आप का यह चुनाव तो निकल जाएगा...

हलो हलो...इसीलिए तो कह रहा हूँ कि जरा जल्दी कीजिये....चुनाव तो मई में होंगे...

अरे मनमोहन भाई....राजनीति में ऎसा कहीं होता है..हमें अपनें देश की राजनीति भी तो देखनीं है....आप जब माँगाना बन्द करेंगे तो मामला ठंड़ा होनें में दो चार महिनें जाँएगे.....हम जुलाई अगस्त तक आपको ड़िलिवरी दे पाऎगे..

तो ठीक है आप जुलाई में दे दीजिये.....

लेकिन भाई हम फिर कह रहे हैं कि आप लेकर करेंगे क्या...हम जुलाई में आपको देंगे.....आप ४-६ साल मुकदमा चलायेगे....फिर जुर्म को देखते हुए कम से कम फाँसी की सजा सुनाई जायेगी......लेकिन मनमोहन भाई हम फिर कह रहे हैं कि आप बेकार मे लखवी को मांग रहे है....

अज़ीब अहमक पनें की बात कर रहें हैं......बार बार करेंगे क्या- करेंगे क्या कर रहे हैं....जो जुर्म किया है उसकी सजा देंगे.....फाँसी देंगे.....और क्या करेंगे.........

मनमोहन भाई अहमकाना बात हम नहीं आप कर रहे हैं........आज तक “अफज़ल गुरु को तो फाँसी दे नहीं पाये”...सुप्रीमकोर्ट के जज़मेन्ट के बाद भी......बात कर रहे हैं.... लखवी को फाँसी देंने की....मैं फिर कह रहा हूँ आप सोंच लो,मोहतर्मा सोनिया गाँधी से पूँछ लीजिये,इस ज़ानिब और किसी से मशविरा करना हो कर लीजिये...फिर बताइये,कह कर जैसे ही ज़रदारी साहब नें फोन रखा मेरी नींद खुल गई।

अब भाई मनमोहन जी और उनका तबेला क्या सोंचता है नहीं मालूम पर तब से मैं सोंच रहा हूँ कि अगला बात तो पते की कर रहा है, एक ‘अफज़ल गुरू’ ही गले में अटके हुए हैं, उसी बाबत सरकार तय नहीं कर पा रही है अब और घण्टा लटकानें की स्थिति में, कुर्सी चिपक और वोट लपक ये राष्ट्रीय शर्म बन चुके नेताओं से क्या देश का स्वाभिमान और जनता सुरक्षित महसूस कर पायेगी? क्या कसाब या लखवी को ये फाँसी दे पाऎंगे???

प्रस्तुतकर्ता सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ पर ४:३१ PM

सेक्सी सेन्सेक्स

बुधवार, ३१ दिसम्बर २००८
सेक्सी सेन्सेक्स
ड़ा० चाहे वह शरीर विज्ञान के हों या अर्थ के भांति-भांति की सलाह दिया करते हैं। चिकित्सक जहाँ सुरक्षित ‘सेक्स’को सेहत के लिए मुफ़ीद बताते हैं तो अर्थशास्त्री ‘सेन्सेक्स’के साथ सुरक्षित ‘सेक्स’ जेब के लिए। अब यह सेन्सुअलिटी होती बड़ी आकर्षक है,विश्वामित्र तक को नहीं छोड़ा ! कहते हैं यह ‘सेन’ लोगों के लिए है किन्तु साथ ही कहते है कि कच्ची उमर के लड़्के जैसे लड़्कियों को स्कूल तक पहुँचानें जाते है वैसे ही भोर होनें से लेकर रात में सोंने तक ‘ट्रैकिंग’करते रहो। पहले ड़ाओजोंस फिर नास्ड़ेक्स फिर निक्की फिर एन.एस.ई.फिर बी.एस.ई. और न जानें कौन कौन सी गलियों में घूमते रहो, ‘फुरसतिया’ जी की अदा में कहें तो ‘बोले तो ख़यालों मे प्रेमिका के साथ बतियानें जइसा कुछ है’। हाँ यह गाना जरूर याद कर लीजिए वक्त पड़नें पर काम आयेगा‘‘ये जो मोहब्बत है,ये उनका है काम,महबूब का जो बस लेते हुए नाम,मर जाँए मिट जाँए हों जाँए बदनाम.........”।

पहिले जैसे फिल्म,उपन्यास या कार्टून का हीरो (हमरे पिता जी के जमानें के हीरोअन मा देवानंद यहि मा फेमस हुई गये) लड़्कियों के स्कुल के आसपास कोई बिजली का खम्भा तलाश कर और हाथ में कोई मैगज़ीन या अखबार चाँप कर खम्भस्थ हो जाता था कि कब उनकी चहेती आये या निकले तो दर्शियाँए या पिछिआँये। तो वैसे ही भुराहरे से रिमोट हाथ में थाम टी०वी० में आँख गड़ाये बैठे हैं। कभी एन०डी०टी०वी० प्रफिट तो कभी सी०एन०बी०सी०और न जानें कौन कौन से चैनल पलट रहे हैं पूँछो काहे तो मुशकिल से बक्कुर फूटेगा कि मार्केट असेस कर रहे हैं। ९.३० बजते ही ब्रोकर से फुनियाना चालू १०० ले लो २०० बेंच दो।कुछ बीमार तो स्टाक एक्सचेन्ज़ की बिल्ड़िग के बाहर लटके बोर्ड़ को ही ताका करते हैं,अन्दर जो भरती हैं वो तो हैं ही।

मेरे एक मित्र हैं चार मोबाइल साथ लेकर चलते हैं,एक बार ७-८ घंटे साथ रहना हुआ।थोड़ी-थोड़ी देर में वह कमरे से बाहर चले जाते थे तो मैनें टोंका कि भाई शुगर टेस्ट कराओ तो गुर्रा कर बोले क्यों? मैने कहा कि हर १०-१५ मिनट में लघुशंका के लिए जाते हो,इससे लगता है कि कुछ शुगर ऊगर की बीमारी हो गयी है। रावण की तरह टहाका लगाते हुए कहा कि यार!बिल्कुल घामड़हे हो,बुरा मानते हुए मैंनें पूँछा क्यों? अबे अब तक २०,०००हजार कमा चुका हूँ तू गिनता रहे लघुशंका। लेकिन मार्च के बाद से जब से मुट्ठी में बन्द रेत की तरह शेयर मार्केट फिसल रहा है, उन्हें वास्तव में न केवल शुगर होगयी है वरन् ब्लड़ प्रेशर भी बीच बीच में जोर मारनें लगता है।डा०कहते हैं कि ब्लड़्प्रेशर की दवा रेगुलर खानीं पड़ेगी,मित्र का कहना है कि जब ‘सेन्सेक्स’ का ब्लड़प्रेशर हाई होगा तभी उनका प्रेशर लो होगा। शुगर होंने की बात को बकवास बताते हुए वह कहते हैं कि अब जब ‘चीनी’ भी ‘कम’ मीठी लगती है तो शुगर कहाँ से हो जायेगी?

उन मित्र की यह गत देख मुझे मेरा ‘मैं’ याद आया और मैं सोंचनें लगा.......।धन से धन बनानें की विधा न तो उचित है और न ही तर्क संगत। धन की अतिव्याप्ति व्यक्ति को जहाँ एक ओर असुरक्षित बनाती है वहीं भ्रष्टाचरण के लिए उकसाती है और अन्ततः मानवता से दूर ले जाती है। पूंजी,बुद्धि एवं यन्त्रों के माध्यम से प्राकृतिक संसाधनों के सीमित भंण्डारों का अन्धाधुन्ध दोहन और तद्जन्य धन सम्पत्ति पर एकाधिकार जहाँ मनुष्य,समाज और देशों के मध्य कलह और युद्धों का कारण बनता है वहीं दूसरी ओर स्वयं और सन्ततियों को काहिल और पौरुषहीन भी बना देता है। धन से धन बनानें मे माहिर पहले ‘प्राड्क्ट’ बेंचते हैं फिर ‘मशीन’ और अन्ततः ‘फार्मूले’ और यह कार्य भी वह पूँजी के बल पर दूसरों से करवाते हैं परिणामतः स्वयं की सन्ततियाँ श्रमहीन,भयग्रस्त,रोगग्रस्त,षणयन्त्रकारी और दूष्ट हो जाती हैं और समस्त अर्जित गौरव को नष्ट कर दरिद्रता को प्राप्त होती हैं। मध्यकाल में सोनें की चिड़िया कहा जानें वाला भारत और वर्तमान में अमेरिका सहित समस्त यूरोपियन देश क्या उस अभिशाप से ग्रस्त हुए नहीं दिख रहे हैं?

जब जब पूंजीवाद धूल धूसरित हुआ दिखायी देगा तो उसका जुड़्वाँ भाई समाजवाद अपनीं पीठ थपथपानें लगेगा कि देखो मैं कह न रहा था,कि ये शोषण का मार्ग है और अन्ततः परास्त होगा। बहुत लोग मार्क्स और उनकी ‘कैपिटल’की दुन्दुभी बजानें लगते हैं। जबकि श्रम,श्रमिक एवं श्रम के वाज़िब मूल्य का उद्योग और पूंजी से चोली दामन का समबन्ध है। पूंजी के बिना श्रम और श्रम के बिना पूंजी का न कोई मूल्य होता है और न ही अस्तित्व। रूस के पतन और चीन के साम्यवाद से ‘यूटर्न’ से साम्यवाद की असलियत पहिले ही सामनें आचुकी थी,अब अमेरिका के मुँहभरा गिरनें के बाद पूंजीवाद की वास्तविकता भी सामनें है। पूंजीवाद जहाँ धनार्जन की निर्बाध छूट दे मनुष्य को अपराधी बनाता है वहीं मानव-श्रम को आधार बना राज्य मानव की स्वतंत्रता का अपहरण करनें का अपराधी बनता है। श्रम का समबन्ध शरीर से है,परिश्रम का समबन्ध बुद्धि से है,इनका कुविचारित प्रयोग का हश्र भी हमारे सामनें है। किन्तु इसका निदान है--भारतीय चिन्तनधारा नें एक अभिनव मार्ग दिखाया था आश्रम व्यवस्था का,जो व्यष्टि के साथ समष्टि के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करनें का मार्ग है। किन्तु अपनें ग्रामीण परिवेशी बाप को बाप कहनें से बचनें वाले तथाकथित बुद्धिजीवी कभी इस पर ध्यान देंगे? मुशकिल दीखता है।

बड़े बुज़ुर्गों की वैसे तो अनुभवजन्य ‘राय’ है कि बिना माँगे सलाह और भीख देना दोनों ही खतरनाक है,लेकिन अब ‘चतुर’ चुप कैसे रहें? रिटायर्ड़ हो चुके या होंने वाले लोगों को तो अर्जित पूँजी बचाये रखना ही ज्यादा श्रेयस्कर है,क्योंकि एक उम्र के बाद यह पूँजी ज़ायज तरीके से एकत्रित करना असम्भव तो नहीं किन्तु सामान्यतः कठिन कार्य है। हर काम की अलग अलग उम्र होती है। अब जो ‘न उम्र की सीमा हो न जन्म का हो बन्धन’के फलसफे को मानते हैं उन वीरों की गति तो वही जानें। जैसे किसी उद्योग या व्यापार के लिए कम या ज्यादा पूंजी दोनों ही नुकसानदेह होती है वैसे ही जीवन की आवश्यकता के लिए जो सामान्यतः धन का संग्रह होंना चाहिये,उतनें पर ही संतोष करनें की आदत ड़ालनी चाहिये। धन का अतिरेक अपनें साथ कुछ अन्तरव्याप्त (इन्हेरेन्ट) व्याधियाँ भी लाता है यह ध्यान में रखा जाना फायदेमंद ही होता है। यदि हमनें अपनें पारिवारिक दायित्वों का समय पर निर्वहन कर लिया है अर्थात पुत्र-पुत्रियों को अच्छी शिक्षा-दीक्षा दे व्यवस्थित कर दिया है और हारी बीमारी समेत सामान्य जीवन चलानें की समुचित व्यवस्था है तो बस अर्थ से समबन्धित व्यवस्था की इतनी ही तो जीवन में भूमिका है। बाबा-दादा एक कहावत कहते थे ‘पूत कपूत तो क्यों धन संचय,पूत सपूत तो क्यों धन संचय’?

फिर भी कनफ्यूजियानें पर “गिरधरकविराय” की यह कुण्ड़्ली मन ही मन दुहरा लेता हूँ-

‘बिना बिचारे जो करे, सो पाछे पछिताये।
काम बिगारो आपनों, जग में होत हँसाये।
जग में होत हँसाये, चित्त में चैन न आवै।
खान-पान-सम्मान, रागरंग मनहि न भावै।
कह गिरिधरकविराय,दुःखकछु टरत न टारै।
भटकतहै मनमाँहि, कियो जो बिना बिचारे॥


प्रस्तुतकर्ता सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ पर ७:२२ PM 2

‘सभ्यताओं का युद्ध’ देखनें से पहले ‘हटिंग्टन’नहीं रहे !

सोमवार, २९ दिसम्बर २००८

सैमुअल फिलिप्स हंटिंग्टन का बुधवार २४ दिसम्बर को ८१ वर्ष की आयु में अमेरिका के मैसाचुसेट्स में निधन हो गया।१८ अप्रैल १९२७ को न्युयार्क में जन्में हंटिंग्टन अपनें विचारों के कारण प्रारंभ से ही चर्चा में रहे। १९५७ में सैनिकों और नागरिकों के सम्बन्धों को व्याख्यायित करनें वाली पहली प्रमुख पुस्तक ‘दि सोल्ज़र एण्ड़ दि स्टेट’भारी विवादों के घेरे में रही किन्तु आज सैन्य-नागरिक सम्बन्धों पर विचारण के लिए सबसे प्रभावशाली पुस्तक मानीं जाती है।हारवर्ड़ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रहे हंटिंग्टन का अमेरिकी कूटनीति और राजनीति पर गहरा प्रभाव रहा था।अमेरिकी शासनव्यवस्था,लोकतंत्र,कूटनीति,सत्ता परिवर्तन एवं आप्रवासी समस्या आदि विषयों पर १७ से अधिक पुस्तकें लिखनें वाले हटिंग्टन की १९९३ में प्रकाशित सबसे चर्चित और आज भी सामयिक पुस्तक ‘क्लैस आफॅ सिविलाइजेशन एण्ड रिमेकिंग आफॅ वर्ड़ आरॅड़र’ ही कही जाएगी।

इस्लाम के प्रबल आलोचक हटिंग्टन की मान्यता थी कि दुनिया के तीन चौथाई युद्ध मुस्लिमों के साथ दुनिया की विभन्न सभ्यताओं को करनें पड़े हैं।क्रिश्चियन,यहूदी,हिन्दू सभी के साथ मुस्लिम युद्धरत रहे हैं या अभी भी लड़ रहे हैं।इस्लाम एक युद्धोन्मत्त विचारधारा है और इसीलिए सेना तथा इस्लाम में अधिकांशतः दुरभिसन्धि रहती है।सभ्यताओं के मध्य संघर्ष का उनका यह मत जहाँ क्रिश्चियन अमेरिका बनाम क्रिश्चियन सर्बिया के साथ हुए युद्ध या दीर्घकाल से चले आ रहे आयरलैण्ड़ बनाम इंग्लैण्ड़ के मध्य संघर्ष से पुष्ट होता है वहीं ईरान-ईराक,या स्वयं ईराक के विभिन्न गुटों या फिर वहाबी सुन्नी बनाम शिया,बोहरा,कादियान आदि के मध्य निरंतर चल रहे संघर्षों से भी पुष्ट एवं प्रमाणित होता है।

अमेरिका में हुए ९/११ के आतंकी हमलों के बाद हटिंग्टन की मान्यता और बढ गयी।ओसामा बिन लादेन के बयानों नें हटिंग्टन की स्वीकार्यता को सर्वमान्य कर दिया।मुस्लिम देशों में लोकतांत्रिक मान्यताओं के अभाव और विश्व के ३० से अधिक देशों में संघर्षरत मुस्लिमों के कृत्यों से तो हटिंग्टन की विचारधारा ही सही सिद्ध हो रही है।साम्यवादियों- फिड़ेल कास्त्रो,चोमस्की,चे ग्वेरा(जूनियर)आदि(भारतीय कम्युनिस्ट भी) नें जबसे ईरान के राष्ट्रपति अहमदिनेज़ाद से हाथ मिलाए हैं तब से बड़े तार्किक(?) तरीके से हटिंग्टन को गलत साबित करनें और इस्लाम को शांति का धर्म बतानें का असफल प्रयास करते रहें हैं।वस्तुतः इस्लाम और मार्क्सवाद में दो बड़ी विचित्र समानताएँ हैं-विस्तारवाद और खूँरेजी।एक इस्लामिक ब्रदरहुड़ की बात धर्म की ऒट लेकर करता है तो दूसरा पूँजीवाद के विरोध के नाम पर। इन दोनों विस्तारवादियों की सत्ता जहाँ भी है क्या वहाँ लोकतंत्र और भिन्न मत रखनें वालों का कोई अस्तित्व मिलता है?सत्ता प्राप्त करनें के लिए दोनों ही विचारधाराऎं कत्लो गारत से जरा भी परहेज नहीं करतीं।

यह एक अजीब संयोग है कि सभ्यताओं के संघर्ष की कहानी को सैद्धान्तिक आधार देनें वाले हटिंग्टन की मृत्यु के ठीक तीन बाद तब जब कि हिदू परम्परानुसार कतिपय लोग तीसरे दिन मृतात्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं आये दिन होंने वाली मिसाइल फायरिंग से ऊब कर इज़्राईल हमास को मुँहतोड़ जवाब ऎसे दे रहा है मानों हटिंग्टन की स्मृति मे शांति हवन कर रहा हो।मानों कह रहा हो कि सभ्यताऒं का संघर्ष एक शाश्व्त सत्य है क्यों कि सभ्यताएँ देश काल की सीमा से जकड़ी रहती हैं और कोई भी सभ्यता बिना संस्कृति के अधूरी रहती है।सभ्यता शरीर है और संस्कृति आत्मा।संस्कारित हुए बिना,सभ्यताऒं का संघर्ष क्या कभी समाप्त हो पाएगा?


प्रस्तुतकर्ता सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ पर ७:१८ PM 4 टिप्पणियाँ

क्या आप समलैंगिक हैं या कहलाना पसंद करेंगे?

रविवार, १६ नवम्बर २००८
क्या आप समलैंगिक हैं या कहलाना पसंद करेंगे?
आज रविवार रात्रि ९.३० बजे एन०डी०टी०वी० पर ‘दोस्ताना’फिल्म के बहानें से समाचार वाचिका नग्मा और एक अन्य नें बहस चला दी समलैंगिकता पर।न्यूजरूम में सशरीर उपस्थित थे अशोक रावजी अध्यक्ष ‘हमसफर’,जिन्हें विषय विशेषज्ञ बताया जा रहा था और जो बार बार यह बता रहे थे कि समलैंगिकता जन्मजात होती है।टेलीकान्फ्रेंसिंग में पाँच अन्य व्यक्त्ति, अभिनेता समीर सोनी जो मधु भण्डारकर की इसी विषय पर बनीं फिल्म के हीरो रहे थे और समलैंगिक समबन्धों को स्वाभाविक,प्राकृतिक एवं गम्भीर विषय बता रहे थे,के अतिरिक्त जान अब्राहम,अभिषेक बच्चन और ‘दोस्ताना’ के निर्माता निर्देशक तरुण भी चर्चा में शरीक थे और जिनका कहना था कि इस विषय को यह फिल्म ह्युमर के रुप मे प्रस्तुत करती है और उनका उद्देश्य इस विषय पर कोई गंभीर चर्चा चलाना नहीं था।
पाँचवें और अन्तिम व्यक्त्ति थे दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिशनर श्री ककक्ड़ जो यह कहनें का प्रयास कर रहे थे कि समलैंगिकता न केवल अप्राकृतिक एवं भारतीय संस्कृति के विपरीत है,वरन दुनिया में मात्र ७-८ देशों में ही इसकी कानून अनुमति दी गई है और यह भी कि अमेरिका जैसे देश में भी मात्र तीन स्टेट्स में यह कानून वैध करार दिया गया था।श्री ककक्ड़ के अनुसार समलैंगिकता को अनुमति देनें में उत्तराधिकार,सम्पत्ति,विवाह और अपराध सम्बन्धी कानूनों में भी बदलाव लाना पड़ेगा।
श्री ककक्ड़ के संस्कृति विरुद्ध और कानूनी अड़चनों के तर्क पर अशोकजी एवं अभिनेता समीर सोनी जी को गंभीर आपत्ति थी।उनके अनुसार संस्कृति क्या होती है और कानून नहीं हैं तो बनाए जा सकते हैं?उनके अनुसार शास्त्रों एवं पुराणों मे भी वर्णित यह प्राकृतिक एवं जन्मजात प्रवृत्ति है और इस पर गंभीरता,सहानुभूति एवं मानवीय प्रवृत्ति की आवश्यकता मानकर निर्णय किया जाना चाहिये।
जितनें शास्त्र और पुराण मैनें पढ़े हैं मुझे नहीं याद पड़्ता कि कहीं समलैंगिकता का वर्णन मिलता है।जहाँ तक रही संस्कृति कि बात तो मुझे लगता है कि बहुतों को संस्कृति शब्द का अर्थ ही नहीं मालूम और अशोकजी एवं समीरजी इस के अपवाद नहीं लगते। हाँ संस्कृति से उनका आशय यदि कल्चर से है तो वहाँ तो ब्लड़ से लेकर यूरीन तक का कल्चर होता है।समलैंगिकता जन्मजात या प्राकृतिक तो कदापि नहीं हो सकती।
विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण सहज,स्वाभाविक और प्राकृतिक होता है,यह स्वतः सिद्ध है,बहुत सारी आधुनिक विज्ञान की खोज भी यही सिद्ध करतीं है।कुत्तों बिल्लियों तथा अन्य पशुओं मे बचपनें के खिलवाड़ में कभी कभी यह दिखता है लेकिन उम्र पाकर वह भी नहीं देखा जाता।अगर यह जन्मजात और प्राकृतिक है तो विकृति या ‘परवर्जन’ क्या होता है?गृहमंत्री और स्वास्थ्यमंत्री में इस विषय पर युद्ध की स्थिति बनी हुयी है। स्वास्थ्यमंत्री रामदौस समलैगिकता के प्रबल समर्थक हैं,क्यों?

प्रस्तुतकर्ता सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ पर ११:०७ AM 5

मुट्ठी बाँधकर आया जगत में हाथ पसारे जायेगा !


जन्म लेनें के बाद किसी को भी शायद यह निश्चित तौर पर ज्ञात नहीं होता है कि उसका भविष्य क्या होगा किन्तु एक सत्य सब को ज्ञात होता है‘जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु’ कि जो पैदा हुआ है वह मरेगा अवश्य।मरनें के बहानें ज़ुदा हो सकते हैं,कफ़न दफ़न के तरीके अलग हो सकते हैं,किन्तु मरेगा अवश्य।अपनें अनुभव से वह यह भी जान जाता है कि शिशु जब उत्पन्न होता है तो उसकी मुट्ठी बन्द होती है।मानों बन्द मुट्ठी में पूर्वजन्म के संस्कारों का खज़ाना बन्द हो।बन्द मुट्ठी जैसे इस बात का इशारह हो कि जिस परवरदिगार ए आलम नें, परात्पर परब्रह्म नें,पैदा किया है उसनें पैदा हुए हर इंशा को कुछ नियामतों के साथ पैदा किया है।मुट्ठी में बन्द यह उपहार नियामतें न केवल स्वयं के लिए हैं वरन घर परिवार पास पड़ॊस और दुनियाँ के लिए भी हैं जो उसके माध्यम से भेजी गयीं हैं।उन नियामतों मे सबसे प्रमुख है बुद्धि,विवेकयुक्त बुद्धि।यही, विवेकबुद्धि ही, स्रष्ट हुए जगत के अन्य जड़ चेतन से मनुष्य को श्रेष्ठ बनाती है।उस जगतनियन्ता सच्चिदानन्द की यह अपेक्षा रहती है कि मनुष्य उस जैसा सत चित आनंद युक्त बनें।
बन्द मुट्ठी के विपरीत वह एक और संकेत देता है कि हर मरे हुए का हाथ पसरा हुआ रह्ता है,मरते वक्त मुट्ठी खुली हुई रहती है।यह संकेत अत्यन्त स्पष्ट तरीके से बताता है कि उसकी दी हुयी नियामतें बाँटनें के लिए हैं संग्रह करनें के लिए नहीं।जो कुछ उस जगत्त्निंयंता नें हमें दिया है हमें यहीं छोड़्कर जाना होगा।संदेश न केवल स्पष्ट है अपरिवर्तनीय भी है।जैसे उसके द्वारा रचित प्रकृति का हर अंग बिना भेद भाव के अपना अवदान सर्वजन हिताय कर रहा है वैसे ही तुम्हें भी करना होगा।किन्तु जहाँ जड़ और पशु कहे जानें वाला जीव जगत स्वभावतः उसके निर्देश का पालन करते सर्वत्र दिखायी पड़्ते हैं वहीं मनुष्य अधिकांश में मनमानी करता दिखायी पड़्ता है।यही न केवल तमाम बुराईयों की जड़ है वरन् आज की तथाकथित प्रगतिशील दुनियाँ में भांति भांति के तनावों और युद्धों का कारक भी।
गोवा से प्रकाशित होनें वाले अंग्रेजी समाचारपत्र‘हेराल्ड’के १७ अगस्त २००८ के अंक में प्रकाशित यह समाचार यूँ तो खुद अपनी कहानी बयाँ कर रहा है किन्तु ४८०००रु०,१४लाख रु० या फ़िर लगभग १करोड़ रु० प्रतिदिन अर्जित करने वाले लोगों की दुनिया का ताश का महल एक न एक दिन तो ढ़हना ही था।यह जो दस्युओं का स्वर्ग बन रहा था उसका मन्दी रुपी दानवी सुरसा के द्वारा निगला जाना क्या अस्वाभाविक कहा जा सकता है?
सोवियत रुस और चीन के ग्लास्नास्त और पेरोस्त्राइका/साम्यवादी नीतियों से यूटर्न लेनें और पूँजीवाद के मुँहभरा गिरनें के बाद,यह तो मान ही लेना चाहिये की दोनों नीतियाँ न केवल दोषपूर्ण है वरन् मानवमात्र की आवश्यकताओं का स्थायी समाधान भी नहीं दे सकतीं।विकल्प भारत दे सकता है बशर्ते कर्णधार यह तय करें कि जगत्गुरु बनना है या सोंने की चिड़िया।


प्रस्तुतकर्ता सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ पर ७:०४ PM 4 टिप्पणियाँ

अब तो लक्ष्मी को मुक्त करो !

मंगलवार, २८ अक्तूबर २००८

प्राचीन काल की बात है,एक बार काली लक्ष्मी और सरस्वती उत्तरदिशा स्थिति भौम स्वर्ग में एकत्रित हुँयी।स्त्रियोचित स्वभाव वश वार्तालाप करते करते आपस में विवाद हो गया।विवाद का विषय था कि तीनों में कौन श्रेष्ठ है?किसी भांति भी जब आपस में श्रेष्ठता के प्रश्न पर सहमति नहीं बन पायी तो ज्येष्ठ होंने के कारण काली पर निर्णय का भार छोड़ा गया।विचारोपरांत काली नें कहा कि हम तीनों मृत्युलोक चलते हैं और देखते है कि हममें से किस को चाहनें वाले अधिक है।जिसके चाहनें वाले अधिक होंगे उसको विजेता माना जाएगा किन्तु एक शर्त है कि कोई भी सूर्योदय के बाद मृत्युलोक में नहीं रुकेगा।
जिस भांति सूर्योदय से सूर्यास्त तक के दिन को तीन भागो--प्रातःसवन जो गायत्री का काल है,माध्यन्दिन सवन जो सावित्री का काल है एवं सायं सवन जो सरस्वती(तीनों कालों में एक गायत्री मन्त्र ही उपांशु आदि स्वरभेद से उच्चरित किया जाता है) का काल है,में बाँटा गया है वैसे ही रात्रि के समय को भी तीन भागो मे विभाजित किया गया है।संध्या से मध्यरात्रि,विशेषतया अंतिम घटी(४८ मिनट स्थानीय समयानुसार) को महानिशीथ काल,महानिशीथ काल से ५घटी में अंतिम १घटी या ४८ मिनट महाउदगीथ काल और तत्पशचात से सूर्योदय के पहले की १घटी को महाउदीच्य काल या ब्राह्म मुहूर्त कहा गया है।
प्रतिज्ञानुसरेण काली-कराली-आकाशवसना-त्रिनेत्री काली मुण्डमाला आदि अलंकरों से सुसज्जित हो निकल ही तो पड़ीं महानिशीथ काल में।मन ही मन हुलसित शिवांगी जहाँ एक ओर उत्सुक ही नहीं आत्मविश्वास से उत्फुल्ल भी थीं कि महाकाल आदिदेव महादेव की अर्धाँगिनी होनें के नाते मृत्युलोक वासी उन्हें हाँथो हाँथ लेंगे वहीं महानिशीथ काल समाप्त होंने के पहिले वापसी की चिन्ता भी सता रही थी।शिवानी नें पहिले घर का दरवाजा खट्खटाया,अल्सायी सी मुद्रा में ग्रहपति नें घर का दरवाजा खोला बाहर निपट अंधेरे में उसे कोई नजर ही न आया।बड़बड़ाते हुए अभी दरवाजा बन्द कर पलटनें ही वाला था कि द्वार पर पुनः खटखट,उसनें पुनः दरवाजा खोला किन्तु मध्यरात्रि के उस निविड़ अंधकार में कुछ भी न दिखायी देनें पर गाली बकते हुए उसनें दरवाजा बन्द दिया।हड़बड़ायी गड़बड़ायी सी काली नें अगले घर का रुख किया और महान आश्चर्य वहाँ भी लगभग वैसी ही पुनरावृत्ति हुई।
कई घरों के जब दरवाजे तक न खुले तो मृड़ानी-काली नें दो चार घरों मे झाँक कर देखनें का प्रयास किया।कहीं राजा साहब मद्यपान कर शिथिलगात हो नर्तकियों का नृत्य देख रहे थे तो कहीं पति नवोढ़ा पत्नी की मनुहार में व्यस्त था।कहीं नगर श्रेष्ठी उस दिन के विक्रय से अर्जित स्वर्ण मुद्राओं को गिननें में व्यस्त था तो कहीं दिन भर के हाड़ तोड़ श्रम के बाद शिथिलगात श्रमिक पेट में घुटने दबाये सो रहा था।समय बीतता देख शिवाँगी नें मृत्युलोक भ्रमण की गति बढ़ाई किन्तु कहीं भी आदर से बैठाना तो दूर दरवाजा खोल हाल चाल पूँछनें वाला तक न मिला।एक जगह एक ब्राहम्णदेउता नें दरवाजा खोल के जो उनकी धजा देखी तो प्रेतनी समझ, बैठाना तो दूर भड़ाक से मुह पर दरवाजा बन्द कर महामृत्युंजय का तो जाप ही न करनें लगे।
स्रष्टि की आदिकर्त्री महाकालशिव की महामाया रुद्राणी काली जहाँ औढ़रदानी पति पर कुपित थीं कि स्रष्ट्योन्मेषकर्ता आदिदेव महादेव का यह कैसा माहात्म्य है कि सम्पूर्ण भूलोक पर उनका एक भी ऎसा भक्त न मिला जो झूँठा ही मन रखनें के व्याज से ही एक बार सम्मान से बैठनें के लिए कहता।कुपितमनः शिवानी के मन में विचारों का आन्दोलन उन्हें सन्तप्त किये जा रहा था,जिसको देखो आता है एक स्तुति सुनाता है‘नमामि शमीशान निर्वाण रुपं’और यथेच्क्षित वर ले कर चला जाता है।सबसे ज्यादा क्रोध उन्हें शंकर पर आरहा था कैसे‘चाम्पेयगौरार्धशरीरकायै-कर्पूरगौरार्धशरीरकाय’सुनाता था,कहता था माँ यह अर्धनारीश्वर स्तोत्र तीनों लोकों में आपको प्रसिद्धि देगा !हूँ ! बना शंकराचार्य घूमता है,और वह रावण,कैसे ‘जटाट्वीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले’सस्वर गाता था, दुष्ट-इनसे पाशुपात्रास्त तक ले गया,ठीक ही किया दशरथनन्दन नें।अचानक पुत्र गिरागुरु गणेश की उन्हें याद आयी।यह सोंचकर हृदय शान्त हुआ कि भूतनाथ अगर कुछ न करेंगे तो गणपति अवश्य कुछ करेगा।इन्हीं संकल्पविकल्पातम्क स्थिति में जैसे तैसे सांसों को संयमित करते मुण्ड़्मालिनी भौमस्वर्ग पहुँची।पहुँचते ही सरस्वती से बोलीं जल्दी करो नहीं तो उद्गीथ काल न निकल जाये।
यह सुनते ही ब्रह्माणी अचकचा कर उठीं और अपनें कक्ष में जा कर प्रस्थान की तैयारी करनें लगीं।शिवपटरानी की हड़बड़ाहट उन्हें सन्देह में ड़ाल रही थी,लगता है गिरिजा को यथेष्ठ सम्मान नहीं मिला या फिरऽऽऽ।चलो जो भी हो अगर कुछ ऎसा वैसा हुआ होगा तो अपनॆं खबरीलाल नारद से पता चल ही जायेगा।रह रह कर उन्हें महालक्ष्मी पर क्रोध आ रहा था,बैठे बिठाये उसे कोई न खोई उत्पात सूझा करता है,इनसे कहूँगी कि शॆषशायी से बात करें,लक्ष्मी को थोड़ा सयंम से रहनें की सलाह दें।
वीणापाणिनी नें पहले की तरह श्वेत साड़ी पहन ली थी,गले में मुक्ता की वही पुरानी माला पहनते हुए एक बार मन में आया कि सनन्दन के पिता से कहूँगी कि बरसों पुरानी इस माला के स्थान पर नई दिलवा दें किन्तु तक्षण ही उन्हें याद आया कि १०८ मनकों कि जिस माला को वह स्रष्टि के आदि से पहनें हुए है उसे बदलनें का मतलब है स्रष्टि का अन्त।क्योंकि ‘अकारो व सर्वावाक’।माला उतारनें में जो क्षणमात्र का समय लगेगा,उतनें समय में ब्रह्माण्ड में परा पश्यन्ती मध्यमा वैखरी आदि जो ध्वन्या और शाब्दीवाक् है उसका अन्तरप्रवाह ही रुक जायेगा।यह जो‘ऋचो अक्षरे परमे व्योमन’ वाला आकाश है वही संकुचित होकर परात्पर में विलीन हो जायेगा।तब न देव रहेंगे न उनकी स्रष्टि।नहीं-नहीं,ऎसा विचार मन में आया ही कैसे।यह सब उस चंचला लक्ष्मी की संगत का प्रभाव है।
मन्दहासवदिनी मनोन्मयी सरस्वान समुद्र वासिनी सरस्वती एक हाथ में पुस्तक दूसरे में वीणा तीसरे में रुद्राक्ष की माला और चौथे हाथ में अंकुश लिए हंसारुढ़ हो निकल पड़ीं अपनें गन्तव्य की ओर।वाग्देवी को अपनें गन्तव्य को लेकर जरा भी भ्रम नहीं था।उन्हें मालुम था कि उन्हें आचार्यकुलों की ओर ही जाना है।यद्यपि अभी विद्याध्ययन का समुचित समय नहीं हुआ था तो भी उन्हें यह भरोसा था कि जब वह निकटस्थ वशिष्ठाश्रम पहुँचेंगी तब तक आचार्यप्रवर शिष्य वृन्द के साथ दैनन्दिन चर्या से निवृत्त हो गाहर्पत्य का अग्नयाधान प्रारम्भ कर चुके होंगे।
मूक होंयें वाचाल ऎसी श्रद्धान्वित जिस जनमानस में हो वहाँ चिकतुषी को द्वन्द्व ही कहाँ?वशिष्ठाश्रम अब सामनें ही था,छात्रगणों की समवेत स्वर‘नमस्ते शारदे देवि,काश्मीरपुरवासिनी/त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि में।अक्षसूत्राक्डुशधरा पाशपुस्तकधारिणी/मुक्ताहारसमायुक्ता वाचि तिष्ठतु में सदा।उल्लसितमनः सरस्वती नें छात्रों की ध्यानमयी स्तुति में विघ्न न पड़ॆ ऎसा ध्यान रखते हुए अन्दर झाँक कर देखा तो पद्मासन में स्थित मुनि वशिष्ठ उपांशु स्वरों में‘ओम् भूर भुवःऽऽऽऽऽ’ गायत्रीमन्त्र का जप कर रहे थे।आह्लादित ह्रदय ब्रह्माणी नें तक्ष्ण निर्णय किया की अब वह वापिस लौटेंगी क्योंकि उन्हें यह ज्ञात हो चुका था कि जब तक धर्मनिष्ठ आचार्य और धर्मप्राण जीव हैं जब तक मर्त्यलोक भा(प्रकाश-ज्ञान के प्रकाश की उपासना में) रत और भारतीय हैं तब तक धरा सुरक्षित है।भौमस्वर्ग की ओर लौटते समय किसी ग्रहस्थ की लोकभाषा में वन्दना कर्ण कुहर में पड़ी--‘शब्द शब्द के फूल अर्थ के सौरभ से अर्चन होगा/रस की यजन आरती से आह्लादित माँ का मन होगा।माँ मैं तेरे पाँओं पडूँ तू मुझको तज कर जा न कहीं/बींन बजे मेरे अन्तर में आसन और लगा न कहीं।’मुकुलितमन होंठों पर मन्द स्मित लिये सरस्वती भौमस्वर्ग पहुँचीं तब महामाया विश्राम के लिए जा चुकीं थीं।महालक्ष्मीं भी उनिंदियाई सी जग रहीं थीं। सरस्वती नें वीणा के झंकृत स्वरों में कहा उठो चंचला अब तुम्हारी बारी है,और महाउदीच्च्य काल अब प्रारम्भ हुआ ही चाहता है।
महालक्ष्मी तो इस क्षण की मानों प्रतीक्षा ही में थीं,त्वरित गति से तीनों लोकों से न्यारे वस्त्राभरण पहन तथा आभूषणादि से अलँकृत हो चलनें के लिए प्रस्तुत हुयीँ तो सरस्वती नें मन्त्रजप बीच में रोककर कहा-लक्ष्मीं शर्त तो याद है न?सूर्योदय से पहले ही वापिस होना है और वैसे भी हम मानव शरीर में मृत्यलोक में तो प्रकट नहीं हो सकते। हाँ ब्रह्माणी मुझे मालूम है क्या इतना भी ज्ञान मुझे नहीं है? उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ‘चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं’ त्वरा के साथ मर्त्यलोक को निकल पड़ी।
विष्णुप्रिया त्वरा के साथ निकली तो थी किन्तु वह असावधान भी नहीं थी।उसे अनायास ही ध्यान आ गया था कि आज पूर्णमासी है और आज सूर्यास्त के पहिले ही चन्द्र भी दक्षिण से उदय हो पड़्ता है।आज के दिन तो शेषशायी की अनुचरी बन उसे रहना ही है।मयूर पर सवार पद्ममालिनी नें मर्त्यलोक पहूँचते ही वाहन छोड़ भ्रमण करना प्रारम्भ किया। मिश्रित आबादी वाला क्षेत्र था जहाँ श्रीमतां लक्ष्मीं जी भ्रमणायमान थीं। एक सामान्य से घर के बाहर द्वार पर उन्होंनें दस्तक दी।अन्दर से किसी वृद्ध के स्वर में‘नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय-भस्माड्गरागाय महेश्वराय’आती अवाज थम गयी और कुछ क्षण बाद एक गौरवर्ण वृद्ध नें द्वार खोला।सामनें स्वर्णाभारण से लदी फँदी एक नवयौवना को देख कर वृद्ध महाशय गड़्बड़ा गये। उन्होंने मन में कहा कि कहाँ ब्रह्म मुहूर्त में ये माया प्रकट हो गयी। तभी विष्णुप्रिया नें वृद्ध की मनोंदशा का आभास करते हुए कहा कि मैं बहुत दूर से आयी हूँ और कुछ समय विश्राम करना चाहती हूँ क्या आप मुझे अन्दर आनें की अनुमति देंगे?ऊहापोह में पड़ॆ वृद्ध जो एक ब्राह्मण थे नें मन में विचार करते हुए कहा कि समस्त अंग लक्ष्णों से तो जैसे साक्षात लक्ष्मी ही हों ऎसा प्रतीत होता है किन्तु है फिर भी यह माया का फेर।ऎसा सोंचते हुए प्रकटतः उन्होंने कहा कि बेटी यह मेरी नित्य उपासना का समय है,द्वार पर आये अतिथि को मना भी नहीं किया जाता,फिर भी यदि असुविधा न हो तो किसी अन्य घर में विश्राम कर लो। लक्ष्मी नें वृद्ध ब्राह्मण की मनोंदशा का आनन्द लेते हुए कहा ठीक है आप व्यर्थ चिन्तित न हों,मै किसी अन्य स्थान पर विश्राम कर लूँगी।इतना कहते ही वह अन्तर्ध्यान हो गयी।तब ब्राह्मण को पश्चाताप हुआ कि अरे यह तो लक्ष्मीं ही थी।
सुवर्णमयी लक्ष्मीं नें थोड़ा आगे जा एक बड़ी सी हवेली की साँकल बजायी।दो-तीन बार दस्तक देनें पर अन्दर से आकर एक प्रौढ सुदर्शन पुरुष नें लड़्खड़ाते हुए दरवाजा खोला।आँखों में नशा और एक हाथ में मदिरापात्र देख लक्ष्मी सकपकायीं।सामनें सोनें से लदी अनिंद्य रुपसी को देख राजा साहब गदगद बोले आओ आओ सुन्दरी तुम्हारा ही इन्तजार था।शराब भी है साकी भी आगयी अब तो मानो स्वर्ग ही इस हवेली में उतर आया है।सन्न् विष्णुप्रिया नें स्थिति की संवेदनशीलता और इज्जत खतरे में देख अन्तर्ध्यान होंने में ही भलायी समझी।
ड़्ररी सहमी लक्ष्मीं नें सांसों को व्यवस्थित किया और चल पड़ी अगले घर की तरफ आखिर प्रतिज्ञा तो पूरी ही करनीं थी। अगले घर का दरवाजा खटखटानें से पहलें उन्होंनें दरवाजे पर कान लगा टोह लेनें की कोशिश की।अन्दर से आती आवाजों से उन्होंने अनुमान लगाया कि कोई वृद्ध गाय की सानी लगातॆ हुए गुनगुना रहा था‘श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वाशुदेवः’।द्वार खटखटाते ही वृद्ध व्यापारी नें आवाज लगायी कौन?प्रत्युत्तर में बाहर से जवाब आया मैं दरवाजा खोलिये!नारी की मधुर आवाज सुनकर व्यापारी नें सोंचते हुए जो दरवाजा खोला तो एक क्षण के तो लिए हतप्रभ रह गये,जैसे साक्षात लक्ष्मीं ही प्रकट हो गयीं हों।गो ब्राह्मण प्रतिपालक व्यापारी नें व्यावहारिक बुद्धि का परिचय देते हुए कहा आओ आओ बेटी अन्दर आओ तुम्हारा ही घर है,जरुर किसी विपत्ति में हो तभी मुँह अंधेरे घर से निकल पड़ी हो।लक्ष्मी कुछ उत्तर दें इससे पहले ही उसनें आवाज लगानी शुरु की अरे मुन्नू की अम्मा अरे छोटे की बहू अरे मुन्नू देखो तो घर में अतिथि आये हैं जल्दी से कुछ जल मिष्ठान्न लाओ तो।
आवाज सुनकर पूरा घर इकठ्ठा हो गया,जल मिष्ठान्न आ गया तब वे उस युवती की ओर आकृष्ट हुए और बोले हाँ तो बेटी अब बताओ क्या समस्या है?ताबड़्तोड़ आतिथ्य से हड़्बड़ायी लक्ष्मी नें कहा इस सब की आवश्यकता नहीं है मैं मात्र कुछ समय के लिए यहाँ विश्राम करना चाहती हूँ क्योंकि मुझे सूर्योदय से पूर्व अपनें घर भी पहुँचना है। व्यापारी मन ही मन गुणा भाग लगा रहा था,उसनें कहा हाँ हाँ बेटी तुम विश्राम करो मै बस गंगा स्नान कर अभी लौटता हूँ।नहीं तात मुझे शीघ्र ही जाना होगा आप के आनें में विलम्ब हो सकता है। इस पर व्यापारी नें कहा बेटी तुम तनिक भी चिन्ता न करो मै बस य़ुँ गया और यूँ आया,चुटकी बजाते हुए सेठ गोपीचन्द नें कहा। चाह कर भी लक्ष्मीं कुछ न बोल पाँयी। सेठ गोपीचन्द ने पत्नीं बच्चों को कलेवा तैयार करनें और अतिथि की समुचित देखभाल करनें का निर्देश दे गंगा स्नान को प्रस्थित हो गये।
रास्ते भर सेठ गोपीचन्द सोंचते रहे कि हो न हो यह साक्षात लक्ष्मीं ही घर पधारी हैं।सेठ जी नें कथा सत्संग में सुना था कि ब्रह्म मुहूर्त में देवी देवता भक्तों की परीक्षा लेनें निकलते हैं।सेठ जी का मन आज न ठीक से भजन में लग रहा था न मार्ग में नित्य मिलनें वाले मित्रों से राम जुहार में।बार बार एक विद्वान संत की सुनाई एक पंक्ति उन्हें याद आ रही थी‘॥नित्यं सा पद्महस्ता मम वसतु गृहे सर्वमांगल्ययुक्ता ।लक्ष्मीं क्षीरसमुद्र राजतनयां श्रीरंगधामेश्वरीम॥’गंगा जी तक पहुँचते पहुँचते सेठ जी लगभ इस निश्कर्ष पर पहुँच चुके थे कि आगन्तुक स्त्री साक्षात महालक्ष्मीं ही हैं।गंगा में डुबकी लगाते लगाते सेठ जी नें सोंचा अस्सी बरस की उम्र होनें को आयी जैसे तैसे व्यापार कर घर चलाता रहा हुँ क्यों न ऎसा करुँ की घर ही न जाँऊ।जब घर ही न लौटूँगा तो शपथ से बँधी लक्ष्मी घर से जायेगी ही नहीं।सेठ गोपीचन्द नें यह सोंच कर जो आखिरी डुबकी लगायी तो फिर ऊपर ही न आये। वचनब्द्धा विष्णुप्रिया तब से सेठ गोपीचन्द के यहाँ तीन पीढ़ी से बन्दनी जैसी पड़ी है।सेठ के नाती पोतों नें व्यापार में बड़ी तरक्की की है,विदेशों तक में व्यापार फैला लिया है।विदेशी बैकों में अथाह पैसा पड़ा है,पूँछने पर कहते हैं सब बाबा के पुण्य का प्रताप है।
अभी अभी पता चला है कि सेठ गोपीचन्द का ही नहीं अनेंको भ्रष्ट नेंताओं,अधिकारियों,स्मगलरों और आतंकवादियों का स्विट्जरलैण्ड की बैंकों में १.४५ ट्रिलियन या १४५०बिलियन सिर्फ भारतीयों का धरा है।अगर भारत सरकार चाहे तो वहाँ की सरकार यह बता सकती है कि किसका कितना रुपया है और यदि सरकार चाहे तो वह रुपया देश में लाया जा सकता है।कुछ लोगों का कहना है कि अपनें देश का पंत प्रधान-पंतप्रधान नहीं बिजूका है।ळ्क्ष्मीं जी मुझसे पूँछ रहीं है कि यह १.४५ ट्रिलियन कितना होता है?

लेबल: व्यंग

प्रस्तुतकर्ता सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ पर १:२३ PM 8 टिप्पणियाँ

उतिष्ठ जाग्रत वरान्निबोधत

रविवार, १२ अक्तूबर २००८

उनके लिए जिनके हृदय में राष्ट्र धड़कता है प्राण बनके। उनके लिए जिनके लिए सत्ता और राजनीति से बढकर धर्म दर्शन संस्कृति और सभ्यता का अर्थ अपनी विशिष्ट पहचान है।उनके लिए जो सनातन वैदिक आर्य धर्म जिसे अब अब हिन्दू नाम से जाना जाता है और जिन्हें गर्व है अपनीं इस पहचान पर।उनके लिए जो सत्ता को साध्य नहीं साधन मानते हैं और राष्ट्र के किए जीना ही नहीं मरना भी जानते हैं।उनके लिए जो मानते ही नहीं जानते भी हैं कि आत्म धर्म तभी बचेगा जब शरीर रहेगा एवं राष्ट्र रुपी शरीर के लिए उतपन्न आन्तरिक और वाह्य संकटों से वे अवगत हैं। अतः‘उतिष्ठ जाग्रत वरान्निबोधत’_
भारत में
राज्याधीश
पहले हूणों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै हूण नहीं था।
वे यवनों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै यवन नहीं था।
वे तुर्कों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै तुर्क नहीं था।
वे मुगलों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै मुगल नहीं था।
वे अंग्रेजों को लिए आए
मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं अंग्रेज नहीं था।
वे मात्र सत्ता के प्रतीक
कांगेसियों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै शासित प्रजा
कांग्रेसी नहीं था।
वे धर्मनिरपेक्षों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै साक्षात सर्वधर्म समभाव
छ्द्म धर्मनिरपेक्षी नहीं था।
फिर वे ‘मेरे’ लिए आए
तब कोई कुछ नहीं बोला
क्योंकि तब हिन्दुस्तान में
कोई हिन्दू नहीं बचा था।
‘धर्मों रक्षित रक्षताः’

लेबल: धर्मों रक्षित रक्षताः

प्रस्तुतकर्ता सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ पर ११:०४ AM 13 टिप्पणियाँ

God Makes Man Tailor Makes Gentleman

बुधवार, ८ अक्तूबर २००८

जब से दर्जी की दूकान के बोर्ड पर लिखी यह इबारत पढी है दिमाग में एक अजीब सी हलचल मची हुयी है। दिमाग यह माननें को तैयार ही नही है कि जिस god नें इतनी बड़ी कायनात बनायी और पैदा होनें वाले बच्चे तक की भूख मिटानें का इंतजाम किया,उससे से यह गलती कैसे हो गई कि सभ्य बनानें का ठेका दर्जी को दे दिया।


god भी ओपन सोर्स साफ्टवेयर टाइप चीज है अच्छा खासा मनुष्य तो बड़ी सुन्दरता से फ्री में बना दिया लेकिन वसूली करनें के लिए दर्जी को पीछे लगा दिया। दर्जी कहता है कि भद्र या सभ्य बनानें का काम मेरा है। कई बार यह कहनें के बावजूद कि god ने तो बिना कपड़े के ही पैदा किया था तुम मुझे कपड़े पहना कर यह कुफ्र क्यों करना चाहते हो इस पर उसनें डाँट कर कहा कि मालूम नहीं कि तुमनें god के मना करनें के बाद भी बाग का फल खाया तभी से तुम्हे लज्जा आनें लगी,इसीलिए कपडे पहनना जरुरी हैं।मैने उसे समझाते हुए कहा कि भाई गलती मेरी नहीं दर अस्ल हव्वा मेरी बीबी की हे,उसीनें मूझे वह ना मुराद फल दिया था। वह कह्ती है कि उसके साथ यह शैतानी साँप नें की थी।


तभी दिमाग में यक ब यक स्पार्क हुआ और सारा माजरा समझ में आ गया। दर अस्ल वह साँप ही अब दर्जी बन गया है,उस समय यह शैतानी जान बूझ कर इस लिए इसनें की होगी कि आगे भी धन्धा चलता रहॆ। पहले तो पेड़ों के पत्ते वगैरह लगा कर काम चला लेते थे लेकिन इस कमबख्त २१वीं सदी नें बेड़ा गर्क किया हुआ है। एक तो गिरता हुआ सेनसेक्स और इन्फ्लेशन और उधर रोज नये नये फैशन। इसलिए दर्जियों की बन आयी है।दर्जी भी भांति भांति के हैं कोई साम्यवादी दर्जी तो कोई समाजवादी,कोई काँग्रेसी दर्जी तो कोई संघी।कोई मानववादी दर्जी है तो कोई अल्पसंख्यकवादी,कोई बजरंगी दर्जी है तो कोई मुजाहिदीनी।


कुछ लेखको,पत्रकारों,कवियों नें भी दर्जी की दूकान खोल ली है।और तो और कुछ ब्लागरों नें भी इन दर्जियों का माल ठेके पर बनाना शुरु किया है।गरज़ यह कि सभी नें जेन्टिलमैन बनानें का धंधा शुरु कर दिया है। हद तो यह है कि कुछ दर्जी तो निहायत बेगैरत किस्म के हैं जाहिल अनपढ बिलकुल भांड। अल्पसंख्यकवादी दर्जी जो एक बार कपड़ा फाड़ चुका है कहता है सब को हरे कपड़े ही पहननें पड़ेंगे। संघी दर्जी कहता है कि अब पहले वाली गलती नहीं दुहरानें देंगे कपड़ॆ पीले ही पहननें होंगे।साम्यवादी दर्जी जो एक बार कपड़ा फाड़्नें में मददगार थे आजकल फिर जोर कसे हुए हैं वो सिले सिलाए रूसी/चीनी कपड़ॆ ही पहनानें पर उतारू रह्ते हैं जबकि चाहते तो इतनें दिनों में जरुरत भर के कपड़े सिलना सीख सकते थे।भाँड टाइप दर्जियों की लीला ही निराली इन्हें सिलाई के दाम के बटवारे से मतलब,जब चाहें जिसकी आरती उतारें जब चाहे धोबीपाट मार दें। अपनीं से ज्यादा दूसरे की दूकान पर नज़र ज्यादा गड़ी रहती है।आज कल मुजाहिदीनी दर्जियों की पैरवी में लगे हैं।


इन दर्जियों की हरकतों से इतना ऊब चुका हूँ कि उस दिन को लानत भेजता रह्ता हूँ जिस दिन गलती से हव्वा का दिया वह नाशुकरा फल खाया। न फल खाता न कपड़ॆ पहननें पड़्ते और न ही इन शैतान दर्जियों से पाला पड़ता।हव्वा मेरी बीबी दर्जियों की इन हरकतों से ऊबकर अपनें कपड़े एक दर्जिन को देनें लगी है। एक दिन जब मैं शाम को घूमनें के लिए निकला तो उसनें कहा कि दर्जिन के यहाँ से मेरा ब्लाउज लेते आना। घूम घाम के जब मैं दर्जिन के यहाँ पहुँचा तो दर्जिन दूकान से गायब थी लड़के ने बताया कि बना हुआ माल देनें और पैसे लेने गयी है। इंतजार में टाइम पास करनें के लिए मैने लड़्के से पूँछा कौन बिरादर हो तो जवाब था पहिले रहन तेली फिर भऐ भुर्जी अब हन दर्जी आगे अम्मा की मर्जी।ये दर्जी भी इसी दर्जिन के मिज़ाज के हैं।इस साँप इस शैतान इस दर्जी की हरकतों से इतना आजिज आ गया हूँ कि आजकल एक ही शेर बार बार नाजिल हुआ करता है‘आस्माँ पे है खुदा और ज़मीं पे हम/आजकल वो इस तरफ देखता है कम'।

लेबल: व्यंग्य

प्रस्तुतकर्ता सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ पर ८: