Tuesday, June 22, 2010

साम्यवाद को लाल सलाम

शनिवार, १६ मई २००९

केरल तथा बंगाल के चुनावों में मिली करारी हार क्या अनपॆक्षित है? ‘मार्क्स’ सम्प्रदाय के लोग भले ही न मानें किन्तु बड़ी अम्मा बननें के चक्कर में उनका खुद का सूपड़ा साफ हो गया। अराष्ट्रवादी गतिविधियॊं को क्रान्ति बतानें वाले और झूठ को सच बनाने मॆ माहिर मार्क्स सम्प्रदाय के पैरों के नीचे से जमीन अनायास ही नहीं खिसकी है। प्रसिद्ध साम्यवादी विचारक,लेखिका और सामाजिक कार्यकर्त्री महाश्वेता देवी की मानें तो ३२ सालों में मार्क्स सम्प्रदाय के शासन नें बंगाल को न केवल अंधकार युग में पहुँचा दिया है वरन् जहन्नुम बनानें में कोई कसर बाकी नहीं रखी है।

१४ मई को ‘रेड़िफ डाट काम की, इन्द्रानीराय मित्र को दिये साक्षात्कार में वह कहती हैं कि आँकड़े बताते हैं कि शिशु मृत्यु दर, महिलाओं के प्रति अपराध और वेश्यावृत्ति में बंगाल सब प्रान्तों की तुलना में अग्रणी रहा है। ५५००० से अधिक कल कारखानें बन्द हो चुके है, १५ लाख से अधिक कामगार बेरोजगार हो चुके है तथा लाखों नौजवान रोजगार के लिए श्रम विभाग के चक्कर काट रहे हैं। उनके पास एक लम्बी फेहरिस्त है सरकार की नाकामयाबी और अकर्मण्यता की। याद रखनें की बात है कि लगभग २० साल पहलें उन्होंने ही मार्क्सवादियॊ पर आरोप लगाया था कि, न्यूनतम मजदूरी दिये जानें की माँग करनें पर खुद ज्योति बसु सरकार नें अपनें ही कामरेड़्स को नक्सलवादी कहकर मरवाया था।

मार्क्सवादी सरकार बनवानें मे सक्रिय भूमिका निभानॆ और सरकार को समर्थन देंने वाली महाश्चेता जी कहती हैं कि ३२ बरसों में यह सरकार, जनविरोधी सरकार में कैसे तब्दील हो गई, इसकी वह खुद गवाह है। महाश्वेता जी यह भूल रही हैं कि दुनिया में जहाँ भी मार्क्स सम्प्रदाय की सरकार बनीं है, सभी जगह यह कहानी दुहरायी गयी है चाहे वह फिडेल कास्ट्रो का क्यूबा हो, सोवियतों वाला रूस हो या फिर चीन। ७०-७० साल बन्द कमरों में रखनें के बाद भी जरा सी खुली हवा मिलते ही, रूस को बिखरते सबनें देखा है। देखा है कथित वैज्ञानिक दर्शन पर आधारित उस व्यवस्था को, जिसके नेंताओं के भ्रष्टाचार की सड़ाँध के रूप में पूरी दुनिया में रूसी पूँजी ‘कैपिटल’ का प्रचार कर रही है। माओ की रंगीनियाँ भी अब किसी से छिपी नहीं हैं। स्विस बैकों में जमा धनवानों की सूची में भारतीय सेक्युलर शूरवीरों के बाद रूसियो और चीनियों का ही नम्बर है। रूस को संशोधनवादी कहनें वाले चीन नें, बढ़्ती आबादी और उसकी जरूरतो को ध्यान में रखकर, मार्क्स सम्प्रदाय की नीतियों से य़ूटर्न न लगाया होता तो अभी तक धूल चाट रहा होता। लेकिन इससे उनके विस्तारवादी स्वरूप पर कोई अन्तर नहीं पड़ा है। नेपाल और लंका में उनकी हरकतों से यह पूष्ट होता है।

प्रत्यक्ष में लोकतंत्र का हिमायती बनना और परोक्ष में नक्सल्वादी-माओवादी पालना और पहले ही से शोषित-पीड़ित जनता की आँड़ में खूनी सत्तापलट करानें का खेल अब किसी से छिपा नहीं है। दलितों,आदिवासियों, अल्पसंख्यकों को गलत सलत इतिहास और धर्म की व्याख्या कर भड़्कानें का खेल का खुलासा हो चुका है। अगले वर्ष के अन्त तक केरल और बंगाल में चुनाव होंने हैं। सरकारें बचाए रखनें के लिए इन्हीं सब धत कर्मों का इस्तेमाल किया जानें वाला है। क्या भारतीय जनता और केंन्द्र सरकार, इन खतरों को समझ इन धूर्तों को सहीजगह पहुँचा पायेगी? जनता तो शुरुआत कर चुकी है-केन्द्र में आरूढ़ होंने वाली सरकार क्या वैसा कर पायेगी, यह यक्ष प्रश्न है।


प्रस्तुतकर्ता सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ पर २:३७ PM 8 टिप्पणियाँ

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