Tuesday, June 22, 2010

अब तो लक्ष्मी को मुक्त करो !

मंगलवार, २८ अक्तूबर २००८

प्राचीन काल की बात है,एक बार काली लक्ष्मी और सरस्वती उत्तरदिशा स्थिति भौम स्वर्ग में एकत्रित हुँयी।स्त्रियोचित स्वभाव वश वार्तालाप करते करते आपस में विवाद हो गया।विवाद का विषय था कि तीनों में कौन श्रेष्ठ है?किसी भांति भी जब आपस में श्रेष्ठता के प्रश्न पर सहमति नहीं बन पायी तो ज्येष्ठ होंने के कारण काली पर निर्णय का भार छोड़ा गया।विचारोपरांत काली नें कहा कि हम तीनों मृत्युलोक चलते हैं और देखते है कि हममें से किस को चाहनें वाले अधिक है।जिसके चाहनें वाले अधिक होंगे उसको विजेता माना जाएगा किन्तु एक शर्त है कि कोई भी सूर्योदय के बाद मृत्युलोक में नहीं रुकेगा।
जिस भांति सूर्योदय से सूर्यास्त तक के दिन को तीन भागो--प्रातःसवन जो गायत्री का काल है,माध्यन्दिन सवन जो सावित्री का काल है एवं सायं सवन जो सरस्वती(तीनों कालों में एक गायत्री मन्त्र ही उपांशु आदि स्वरभेद से उच्चरित किया जाता है) का काल है,में बाँटा गया है वैसे ही रात्रि के समय को भी तीन भागो मे विभाजित किया गया है।संध्या से मध्यरात्रि,विशेषतया अंतिम घटी(४८ मिनट स्थानीय समयानुसार) को महानिशीथ काल,महानिशीथ काल से ५घटी में अंतिम १घटी या ४८ मिनट महाउदगीथ काल और तत्पशचात से सूर्योदय के पहले की १घटी को महाउदीच्य काल या ब्राह्म मुहूर्त कहा गया है।
प्रतिज्ञानुसरेण काली-कराली-आकाशवसना-त्रिनेत्री काली मुण्डमाला आदि अलंकरों से सुसज्जित हो निकल ही तो पड़ीं महानिशीथ काल में।मन ही मन हुलसित शिवांगी जहाँ एक ओर उत्सुक ही नहीं आत्मविश्वास से उत्फुल्ल भी थीं कि महाकाल आदिदेव महादेव की अर्धाँगिनी होनें के नाते मृत्युलोक वासी उन्हें हाँथो हाँथ लेंगे वहीं महानिशीथ काल समाप्त होंने के पहिले वापसी की चिन्ता भी सता रही थी।शिवानी नें पहिले घर का दरवाजा खट्खटाया,अल्सायी सी मुद्रा में ग्रहपति नें घर का दरवाजा खोला बाहर निपट अंधेरे में उसे कोई नजर ही न आया।बड़बड़ाते हुए अभी दरवाजा बन्द कर पलटनें ही वाला था कि द्वार पर पुनः खटखट,उसनें पुनः दरवाजा खोला किन्तु मध्यरात्रि के उस निविड़ अंधकार में कुछ भी न दिखायी देनें पर गाली बकते हुए उसनें दरवाजा बन्द दिया।हड़बड़ायी गड़बड़ायी सी काली नें अगले घर का रुख किया और महान आश्चर्य वहाँ भी लगभग वैसी ही पुनरावृत्ति हुई।
कई घरों के जब दरवाजे तक न खुले तो मृड़ानी-काली नें दो चार घरों मे झाँक कर देखनें का प्रयास किया।कहीं राजा साहब मद्यपान कर शिथिलगात हो नर्तकियों का नृत्य देख रहे थे तो कहीं पति नवोढ़ा पत्नी की मनुहार में व्यस्त था।कहीं नगर श्रेष्ठी उस दिन के विक्रय से अर्जित स्वर्ण मुद्राओं को गिननें में व्यस्त था तो कहीं दिन भर के हाड़ तोड़ श्रम के बाद शिथिलगात श्रमिक पेट में घुटने दबाये सो रहा था।समय बीतता देख शिवाँगी नें मृत्युलोक भ्रमण की गति बढ़ाई किन्तु कहीं भी आदर से बैठाना तो दूर दरवाजा खोल हाल चाल पूँछनें वाला तक न मिला।एक जगह एक ब्राहम्णदेउता नें दरवाजा खोल के जो उनकी धजा देखी तो प्रेतनी समझ, बैठाना तो दूर भड़ाक से मुह पर दरवाजा बन्द कर महामृत्युंजय का तो जाप ही न करनें लगे।
स्रष्टि की आदिकर्त्री महाकालशिव की महामाया रुद्राणी काली जहाँ औढ़रदानी पति पर कुपित थीं कि स्रष्ट्योन्मेषकर्ता आदिदेव महादेव का यह कैसा माहात्म्य है कि सम्पूर्ण भूलोक पर उनका एक भी ऎसा भक्त न मिला जो झूँठा ही मन रखनें के व्याज से ही एक बार सम्मान से बैठनें के लिए कहता।कुपितमनः शिवानी के मन में विचारों का आन्दोलन उन्हें सन्तप्त किये जा रहा था,जिसको देखो आता है एक स्तुति सुनाता है‘नमामि शमीशान निर्वाण रुपं’और यथेच्क्षित वर ले कर चला जाता है।सबसे ज्यादा क्रोध उन्हें शंकर पर आरहा था कैसे‘चाम्पेयगौरार्धशरीरकायै-कर्पूरगौरार्धशरीरकाय’सुनाता था,कहता था माँ यह अर्धनारीश्वर स्तोत्र तीनों लोकों में आपको प्रसिद्धि देगा !हूँ ! बना शंकराचार्य घूमता है,और वह रावण,कैसे ‘जटाट्वीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले’सस्वर गाता था, दुष्ट-इनसे पाशुपात्रास्त तक ले गया,ठीक ही किया दशरथनन्दन नें।अचानक पुत्र गिरागुरु गणेश की उन्हें याद आयी।यह सोंचकर हृदय शान्त हुआ कि भूतनाथ अगर कुछ न करेंगे तो गणपति अवश्य कुछ करेगा।इन्हीं संकल्पविकल्पातम्क स्थिति में जैसे तैसे सांसों को संयमित करते मुण्ड़्मालिनी भौमस्वर्ग पहुँची।पहुँचते ही सरस्वती से बोलीं जल्दी करो नहीं तो उद्गीथ काल न निकल जाये।
यह सुनते ही ब्रह्माणी अचकचा कर उठीं और अपनें कक्ष में जा कर प्रस्थान की तैयारी करनें लगीं।शिवपटरानी की हड़बड़ाहट उन्हें सन्देह में ड़ाल रही थी,लगता है गिरिजा को यथेष्ठ सम्मान नहीं मिला या फिरऽऽऽ।चलो जो भी हो अगर कुछ ऎसा वैसा हुआ होगा तो अपनॆं खबरीलाल नारद से पता चल ही जायेगा।रह रह कर उन्हें महालक्ष्मी पर क्रोध आ रहा था,बैठे बिठाये उसे कोई न खोई उत्पात सूझा करता है,इनसे कहूँगी कि शॆषशायी से बात करें,लक्ष्मी को थोड़ा सयंम से रहनें की सलाह दें।
वीणापाणिनी नें पहले की तरह श्वेत साड़ी पहन ली थी,गले में मुक्ता की वही पुरानी माला पहनते हुए एक बार मन में आया कि सनन्दन के पिता से कहूँगी कि बरसों पुरानी इस माला के स्थान पर नई दिलवा दें किन्तु तक्षण ही उन्हें याद आया कि १०८ मनकों कि जिस माला को वह स्रष्टि के आदि से पहनें हुए है उसे बदलनें का मतलब है स्रष्टि का अन्त।क्योंकि ‘अकारो व सर्वावाक’।माला उतारनें में जो क्षणमात्र का समय लगेगा,उतनें समय में ब्रह्माण्ड में परा पश्यन्ती मध्यमा वैखरी आदि जो ध्वन्या और शाब्दीवाक् है उसका अन्तरप्रवाह ही रुक जायेगा।यह जो‘ऋचो अक्षरे परमे व्योमन’ वाला आकाश है वही संकुचित होकर परात्पर में विलीन हो जायेगा।तब न देव रहेंगे न उनकी स्रष्टि।नहीं-नहीं,ऎसा विचार मन में आया ही कैसे।यह सब उस चंचला लक्ष्मी की संगत का प्रभाव है।
मन्दहासवदिनी मनोन्मयी सरस्वान समुद्र वासिनी सरस्वती एक हाथ में पुस्तक दूसरे में वीणा तीसरे में रुद्राक्ष की माला और चौथे हाथ में अंकुश लिए हंसारुढ़ हो निकल पड़ीं अपनें गन्तव्य की ओर।वाग्देवी को अपनें गन्तव्य को लेकर जरा भी भ्रम नहीं था।उन्हें मालुम था कि उन्हें आचार्यकुलों की ओर ही जाना है।यद्यपि अभी विद्याध्ययन का समुचित समय नहीं हुआ था तो भी उन्हें यह भरोसा था कि जब वह निकटस्थ वशिष्ठाश्रम पहुँचेंगी तब तक आचार्यप्रवर शिष्य वृन्द के साथ दैनन्दिन चर्या से निवृत्त हो गाहर्पत्य का अग्नयाधान प्रारम्भ कर चुके होंगे।
मूक होंयें वाचाल ऎसी श्रद्धान्वित जिस जनमानस में हो वहाँ चिकतुषी को द्वन्द्व ही कहाँ?वशिष्ठाश्रम अब सामनें ही था,छात्रगणों की समवेत स्वर‘नमस्ते शारदे देवि,काश्मीरपुरवासिनी/त्वामहं प्रार्थये नित्यं विद्यादानं च देहि में।अक्षसूत्राक्डुशधरा पाशपुस्तकधारिणी/मुक्ताहारसमायुक्ता वाचि तिष्ठतु में सदा।उल्लसितमनः सरस्वती नें छात्रों की ध्यानमयी स्तुति में विघ्न न पड़ॆ ऎसा ध्यान रखते हुए अन्दर झाँक कर देखा तो पद्मासन में स्थित मुनि वशिष्ठ उपांशु स्वरों में‘ओम् भूर भुवःऽऽऽऽऽ’ गायत्रीमन्त्र का जप कर रहे थे।आह्लादित ह्रदय ब्रह्माणी नें तक्ष्ण निर्णय किया की अब वह वापिस लौटेंगी क्योंकि उन्हें यह ज्ञात हो चुका था कि जब तक धर्मनिष्ठ आचार्य और धर्मप्राण जीव हैं जब तक मर्त्यलोक भा(प्रकाश-ज्ञान के प्रकाश की उपासना में) रत और भारतीय हैं तब तक धरा सुरक्षित है।भौमस्वर्ग की ओर लौटते समय किसी ग्रहस्थ की लोकभाषा में वन्दना कर्ण कुहर में पड़ी--‘शब्द शब्द के फूल अर्थ के सौरभ से अर्चन होगा/रस की यजन आरती से आह्लादित माँ का मन होगा।माँ मैं तेरे पाँओं पडूँ तू मुझको तज कर जा न कहीं/बींन बजे मेरे अन्तर में आसन और लगा न कहीं।’मुकुलितमन होंठों पर मन्द स्मित लिये सरस्वती भौमस्वर्ग पहुँचीं तब महामाया विश्राम के लिए जा चुकीं थीं।महालक्ष्मीं भी उनिंदियाई सी जग रहीं थीं। सरस्वती नें वीणा के झंकृत स्वरों में कहा उठो चंचला अब तुम्हारी बारी है,और महाउदीच्च्य काल अब प्रारम्भ हुआ ही चाहता है।
महालक्ष्मी तो इस क्षण की मानों प्रतीक्षा ही में थीं,त्वरित गति से तीनों लोकों से न्यारे वस्त्राभरण पहन तथा आभूषणादि से अलँकृत हो चलनें के लिए प्रस्तुत हुयीँ तो सरस्वती नें मन्त्रजप बीच में रोककर कहा-लक्ष्मीं शर्त तो याद है न?सूर्योदय से पहले ही वापिस होना है और वैसे भी हम मानव शरीर में मृत्यलोक में तो प्रकट नहीं हो सकते। हाँ ब्रह्माणी मुझे मालूम है क्या इतना भी ज्ञान मुझे नहीं है? उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ‘चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं’ त्वरा के साथ मर्त्यलोक को निकल पड़ी।
विष्णुप्रिया त्वरा के साथ निकली तो थी किन्तु वह असावधान भी नहीं थी।उसे अनायास ही ध्यान आ गया था कि आज पूर्णमासी है और आज सूर्यास्त के पहिले ही चन्द्र भी दक्षिण से उदय हो पड़्ता है।आज के दिन तो शेषशायी की अनुचरी बन उसे रहना ही है।मयूर पर सवार पद्ममालिनी नें मर्त्यलोक पहूँचते ही वाहन छोड़ भ्रमण करना प्रारम्भ किया। मिश्रित आबादी वाला क्षेत्र था जहाँ श्रीमतां लक्ष्मीं जी भ्रमणायमान थीं। एक सामान्य से घर के बाहर द्वार पर उन्होंनें दस्तक दी।अन्दर से किसी वृद्ध के स्वर में‘नागेन्द्रहाराय त्रिलोचनाय-भस्माड्गरागाय महेश्वराय’आती अवाज थम गयी और कुछ क्षण बाद एक गौरवर्ण वृद्ध नें द्वार खोला।सामनें स्वर्णाभारण से लदी फँदी एक नवयौवना को देख कर वृद्ध महाशय गड़्बड़ा गये। उन्होंने मन में कहा कि कहाँ ब्रह्म मुहूर्त में ये माया प्रकट हो गयी। तभी विष्णुप्रिया नें वृद्ध की मनोंदशा का आभास करते हुए कहा कि मैं बहुत दूर से आयी हूँ और कुछ समय विश्राम करना चाहती हूँ क्या आप मुझे अन्दर आनें की अनुमति देंगे?ऊहापोह में पड़ॆ वृद्ध जो एक ब्राह्मण थे नें मन में विचार करते हुए कहा कि समस्त अंग लक्ष्णों से तो जैसे साक्षात लक्ष्मी ही हों ऎसा प्रतीत होता है किन्तु है फिर भी यह माया का फेर।ऎसा सोंचते हुए प्रकटतः उन्होंने कहा कि बेटी यह मेरी नित्य उपासना का समय है,द्वार पर आये अतिथि को मना भी नहीं किया जाता,फिर भी यदि असुविधा न हो तो किसी अन्य घर में विश्राम कर लो। लक्ष्मी नें वृद्ध ब्राह्मण की मनोंदशा का आनन्द लेते हुए कहा ठीक है आप व्यर्थ चिन्तित न हों,मै किसी अन्य स्थान पर विश्राम कर लूँगी।इतना कहते ही वह अन्तर्ध्यान हो गयी।तब ब्राह्मण को पश्चाताप हुआ कि अरे यह तो लक्ष्मीं ही थी।
सुवर्णमयी लक्ष्मीं नें थोड़ा आगे जा एक बड़ी सी हवेली की साँकल बजायी।दो-तीन बार दस्तक देनें पर अन्दर से आकर एक प्रौढ सुदर्शन पुरुष नें लड़्खड़ाते हुए दरवाजा खोला।आँखों में नशा और एक हाथ में मदिरापात्र देख लक्ष्मी सकपकायीं।सामनें सोनें से लदी अनिंद्य रुपसी को देख राजा साहब गदगद बोले आओ आओ सुन्दरी तुम्हारा ही इन्तजार था।शराब भी है साकी भी आगयी अब तो मानो स्वर्ग ही इस हवेली में उतर आया है।सन्न् विष्णुप्रिया नें स्थिति की संवेदनशीलता और इज्जत खतरे में देख अन्तर्ध्यान होंने में ही भलायी समझी।
ड़्ररी सहमी लक्ष्मीं नें सांसों को व्यवस्थित किया और चल पड़ी अगले घर की तरफ आखिर प्रतिज्ञा तो पूरी ही करनीं थी। अगले घर का दरवाजा खटखटानें से पहलें उन्होंनें दरवाजे पर कान लगा टोह लेनें की कोशिश की।अन्दर से आती आवाजों से उन्होंने अनुमान लगाया कि कोई वृद्ध गाय की सानी लगातॆ हुए गुनगुना रहा था‘श्री कृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वाशुदेवः’।द्वार खटखटाते ही वृद्ध व्यापारी नें आवाज लगायी कौन?प्रत्युत्तर में बाहर से जवाब आया मैं दरवाजा खोलिये!नारी की मधुर आवाज सुनकर व्यापारी नें सोंचते हुए जो दरवाजा खोला तो एक क्षण के तो लिए हतप्रभ रह गये,जैसे साक्षात लक्ष्मीं ही प्रकट हो गयीं हों।गो ब्राह्मण प्रतिपालक व्यापारी नें व्यावहारिक बुद्धि का परिचय देते हुए कहा आओ आओ बेटी अन्दर आओ तुम्हारा ही घर है,जरुर किसी विपत्ति में हो तभी मुँह अंधेरे घर से निकल पड़ी हो।लक्ष्मी कुछ उत्तर दें इससे पहले ही उसनें आवाज लगानी शुरु की अरे मुन्नू की अम्मा अरे छोटे की बहू अरे मुन्नू देखो तो घर में अतिथि आये हैं जल्दी से कुछ जल मिष्ठान्न लाओ तो।
आवाज सुनकर पूरा घर इकठ्ठा हो गया,जल मिष्ठान्न आ गया तब वे उस युवती की ओर आकृष्ट हुए और बोले हाँ तो बेटी अब बताओ क्या समस्या है?ताबड़्तोड़ आतिथ्य से हड़्बड़ायी लक्ष्मी नें कहा इस सब की आवश्यकता नहीं है मैं मात्र कुछ समय के लिए यहाँ विश्राम करना चाहती हूँ क्योंकि मुझे सूर्योदय से पूर्व अपनें घर भी पहुँचना है। व्यापारी मन ही मन गुणा भाग लगा रहा था,उसनें कहा हाँ हाँ बेटी तुम विश्राम करो मै बस गंगा स्नान कर अभी लौटता हूँ।नहीं तात मुझे शीघ्र ही जाना होगा आप के आनें में विलम्ब हो सकता है। इस पर व्यापारी नें कहा बेटी तुम तनिक भी चिन्ता न करो मै बस य़ुँ गया और यूँ आया,चुटकी बजाते हुए सेठ गोपीचन्द नें कहा। चाह कर भी लक्ष्मीं कुछ न बोल पाँयी। सेठ गोपीचन्द ने पत्नीं बच्चों को कलेवा तैयार करनें और अतिथि की समुचित देखभाल करनें का निर्देश दे गंगा स्नान को प्रस्थित हो गये।
रास्ते भर सेठ गोपीचन्द सोंचते रहे कि हो न हो यह साक्षात लक्ष्मीं ही घर पधारी हैं।सेठ जी नें कथा सत्संग में सुना था कि ब्रह्म मुहूर्त में देवी देवता भक्तों की परीक्षा लेनें निकलते हैं।सेठ जी का मन आज न ठीक से भजन में लग रहा था न मार्ग में नित्य मिलनें वाले मित्रों से राम जुहार में।बार बार एक विद्वान संत की सुनाई एक पंक्ति उन्हें याद आ रही थी‘॥नित्यं सा पद्महस्ता मम वसतु गृहे सर्वमांगल्ययुक्ता ।लक्ष्मीं क्षीरसमुद्र राजतनयां श्रीरंगधामेश्वरीम॥’गंगा जी तक पहुँचते पहुँचते सेठ जी लगभ इस निश्कर्ष पर पहुँच चुके थे कि आगन्तुक स्त्री साक्षात महालक्ष्मीं ही हैं।गंगा में डुबकी लगाते लगाते सेठ जी नें सोंचा अस्सी बरस की उम्र होनें को आयी जैसे तैसे व्यापार कर घर चलाता रहा हुँ क्यों न ऎसा करुँ की घर ही न जाँऊ।जब घर ही न लौटूँगा तो शपथ से बँधी लक्ष्मी घर से जायेगी ही नहीं।सेठ गोपीचन्द नें यह सोंच कर जो आखिरी डुबकी लगायी तो फिर ऊपर ही न आये। वचनब्द्धा विष्णुप्रिया तब से सेठ गोपीचन्द के यहाँ तीन पीढ़ी से बन्दनी जैसी पड़ी है।सेठ के नाती पोतों नें व्यापार में बड़ी तरक्की की है,विदेशों तक में व्यापार फैला लिया है।विदेशी बैकों में अथाह पैसा पड़ा है,पूँछने पर कहते हैं सब बाबा के पुण्य का प्रताप है।
अभी अभी पता चला है कि सेठ गोपीचन्द का ही नहीं अनेंको भ्रष्ट नेंताओं,अधिकारियों,स्मगलरों और आतंकवादियों का स्विट्जरलैण्ड की बैंकों में १.४५ ट्रिलियन या १४५०बिलियन सिर्फ भारतीयों का धरा है।अगर भारत सरकार चाहे तो वहाँ की सरकार यह बता सकती है कि किसका कितना रुपया है और यदि सरकार चाहे तो वह रुपया देश में लाया जा सकता है।कुछ लोगों का कहना है कि अपनें देश का पंत प्रधान-पंतप्रधान नहीं बिजूका है।ळ्क्ष्मीं जी मुझसे पूँछ रहीं है कि यह १.४५ ट्रिलियन कितना होता है?

लेबल: व्यंग

प्रस्तुतकर्ता सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ पर १:२३ PM 8 टिप्पणियाँ

No comments:

Post a Comment