Tuesday, June 22, 2010

‘सभ्यताओं का युद्ध’ देखनें से पहले ‘हटिंग्टन’नहीं रहे !

सोमवार, २९ दिसम्बर २००८

सैमुअल फिलिप्स हंटिंग्टन का बुधवार २४ दिसम्बर को ८१ वर्ष की आयु में अमेरिका के मैसाचुसेट्स में निधन हो गया।१८ अप्रैल १९२७ को न्युयार्क में जन्में हंटिंग्टन अपनें विचारों के कारण प्रारंभ से ही चर्चा में रहे। १९५७ में सैनिकों और नागरिकों के सम्बन्धों को व्याख्यायित करनें वाली पहली प्रमुख पुस्तक ‘दि सोल्ज़र एण्ड़ दि स्टेट’भारी विवादों के घेरे में रही किन्तु आज सैन्य-नागरिक सम्बन्धों पर विचारण के लिए सबसे प्रभावशाली पुस्तक मानीं जाती है।हारवर्ड़ विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रहे हंटिंग्टन का अमेरिकी कूटनीति और राजनीति पर गहरा प्रभाव रहा था।अमेरिकी शासनव्यवस्था,लोकतंत्र,कूटनीति,सत्ता परिवर्तन एवं आप्रवासी समस्या आदि विषयों पर १७ से अधिक पुस्तकें लिखनें वाले हटिंग्टन की १९९३ में प्रकाशित सबसे चर्चित और आज भी सामयिक पुस्तक ‘क्लैस आफॅ सिविलाइजेशन एण्ड रिमेकिंग आफॅ वर्ड़ आरॅड़र’ ही कही जाएगी।

इस्लाम के प्रबल आलोचक हटिंग्टन की मान्यता थी कि दुनिया के तीन चौथाई युद्ध मुस्लिमों के साथ दुनिया की विभन्न सभ्यताओं को करनें पड़े हैं।क्रिश्चियन,यहूदी,हिन्दू सभी के साथ मुस्लिम युद्धरत रहे हैं या अभी भी लड़ रहे हैं।इस्लाम एक युद्धोन्मत्त विचारधारा है और इसीलिए सेना तथा इस्लाम में अधिकांशतः दुरभिसन्धि रहती है।सभ्यताओं के मध्य संघर्ष का उनका यह मत जहाँ क्रिश्चियन अमेरिका बनाम क्रिश्चियन सर्बिया के साथ हुए युद्ध या दीर्घकाल से चले आ रहे आयरलैण्ड़ बनाम इंग्लैण्ड़ के मध्य संघर्ष से पुष्ट होता है वहीं ईरान-ईराक,या स्वयं ईराक के विभिन्न गुटों या फिर वहाबी सुन्नी बनाम शिया,बोहरा,कादियान आदि के मध्य निरंतर चल रहे संघर्षों से भी पुष्ट एवं प्रमाणित होता है।

अमेरिका में हुए ९/११ के आतंकी हमलों के बाद हटिंग्टन की मान्यता और बढ गयी।ओसामा बिन लादेन के बयानों नें हटिंग्टन की स्वीकार्यता को सर्वमान्य कर दिया।मुस्लिम देशों में लोकतांत्रिक मान्यताओं के अभाव और विश्व के ३० से अधिक देशों में संघर्षरत मुस्लिमों के कृत्यों से तो हटिंग्टन की विचारधारा ही सही सिद्ध हो रही है।साम्यवादियों- फिड़ेल कास्त्रो,चोमस्की,चे ग्वेरा(जूनियर)आदि(भारतीय कम्युनिस्ट भी) नें जबसे ईरान के राष्ट्रपति अहमदिनेज़ाद से हाथ मिलाए हैं तब से बड़े तार्किक(?) तरीके से हटिंग्टन को गलत साबित करनें और इस्लाम को शांति का धर्म बतानें का असफल प्रयास करते रहें हैं।वस्तुतः इस्लाम और मार्क्सवाद में दो बड़ी विचित्र समानताएँ हैं-विस्तारवाद और खूँरेजी।एक इस्लामिक ब्रदरहुड़ की बात धर्म की ऒट लेकर करता है तो दूसरा पूँजीवाद के विरोध के नाम पर। इन दोनों विस्तारवादियों की सत्ता जहाँ भी है क्या वहाँ लोकतंत्र और भिन्न मत रखनें वालों का कोई अस्तित्व मिलता है?सत्ता प्राप्त करनें के लिए दोनों ही विचारधाराऎं कत्लो गारत से जरा भी परहेज नहीं करतीं।

यह एक अजीब संयोग है कि सभ्यताओं के संघर्ष की कहानी को सैद्धान्तिक आधार देनें वाले हटिंग्टन की मृत्यु के ठीक तीन बाद तब जब कि हिदू परम्परानुसार कतिपय लोग तीसरे दिन मृतात्मा की शांति के लिए प्रार्थना करते हैं आये दिन होंने वाली मिसाइल फायरिंग से ऊब कर इज़्राईल हमास को मुँहतोड़ जवाब ऎसे दे रहा है मानों हटिंग्टन की स्मृति मे शांति हवन कर रहा हो।मानों कह रहा हो कि सभ्यताऒं का संघर्ष एक शाश्व्त सत्य है क्यों कि सभ्यताएँ देश काल की सीमा से जकड़ी रहती हैं और कोई भी सभ्यता बिना संस्कृति के अधूरी रहती है।सभ्यता शरीर है और संस्कृति आत्मा।संस्कारित हुए बिना,सभ्यताऒं का संघर्ष क्या कभी समाप्त हो पाएगा?


प्रस्तुतकर्ता सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ पर ७:१८ PM 4 टिप्पणियाँ

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