Tuesday, June 22, 2010

उतिष्ठ जाग्रत वरान्निबोधत

रविवार, १२ अक्तूबर २००८

उनके लिए जिनके हृदय में राष्ट्र धड़कता है प्राण बनके। उनके लिए जिनके लिए सत्ता और राजनीति से बढकर धर्म दर्शन संस्कृति और सभ्यता का अर्थ अपनी विशिष्ट पहचान है।उनके लिए जो सनातन वैदिक आर्य धर्म जिसे अब अब हिन्दू नाम से जाना जाता है और जिन्हें गर्व है अपनीं इस पहचान पर।उनके लिए जो सत्ता को साध्य नहीं साधन मानते हैं और राष्ट्र के किए जीना ही नहीं मरना भी जानते हैं।उनके लिए जो मानते ही नहीं जानते भी हैं कि आत्म धर्म तभी बचेगा जब शरीर रहेगा एवं राष्ट्र रुपी शरीर के लिए उतपन्न आन्तरिक और वाह्य संकटों से वे अवगत हैं। अतः‘उतिष्ठ जाग्रत वरान्निबोधत’_
भारत में
राज्याधीश
पहले हूणों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै हूण नहीं था।
वे यवनों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै यवन नहीं था।
वे तुर्कों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै तुर्क नहीं था।
वे मुगलों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै मुगल नहीं था।
वे अंग्रेजों को लिए आए
मैं कुछ नहीं बोला
क्योंकि मैं अंग्रेज नहीं था।
वे मात्र सत्ता के प्रतीक
कांगेसियों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै शासित प्रजा
कांग्रेसी नहीं था।
वे धर्मनिरपेक्षों को लिए आए
मै कुछ नहीं बोला
क्योंकि मै साक्षात सर्वधर्म समभाव
छ्द्म धर्मनिरपेक्षी नहीं था।
फिर वे ‘मेरे’ लिए आए
तब कोई कुछ नहीं बोला
क्योंकि तब हिन्दुस्तान में
कोई हिन्दू नहीं बचा था।
‘धर्मों रक्षित रक्षताः’

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प्रस्तुतकर्ता सुमन्त मिश्र ‘कात्यायन’ पर ११:०४ AM 13 टिप्पणियाँ

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